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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन ।
२. विचारणा ___ शास्त्रों के अनुशीलन, सत्पुरुषों के संसर्ग तथा वैराग्य के अभ्यास से जो सद् आचार में प्रवृत्ति होती है, वह विचारणा है।
३. तनुमानसा
शुभेच्छा और विचारणा द्वारा इंद्रिय-विषयक भोगों में आसक्ति नहीं रहती। मन तन्तासविकल्प-समाधिरूप सूक्ष्मता को प्राप्त कर लेता है। अत: वह तनुमानसा कही गई है। ४. सत्त्वापत्ति
पूर्वोक्त तीनों भूमिकाओं के अभ्यास से एवं चित्त में बाह्य विषयों के प्रति उत्पन्न विरक्ति से स्वरूप- सन्मात्र रूप शुद्ध आत्मा में जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसे सत्त्वापत्ति कहा जाता है।
५. असंसक्ति
शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा एवं सत्त्वापत्ति- इन चार ज्ञान भूमियों के अभ्यास से, बाह्य और आभ्यंतर विषय-विकारों तथा संस्कारों के प्रति संग- आसक्त भाव छोड़ देने से सत्त्व-चमत्कारब्रह्मात्मभाव-साक्षात्कार-रूप चमत्कार जिसमें उत्पन्न हो जाता है, उसे असंसक्ति नामक भूमिका कहा। जाता है।
इस भूमिका में द्वैतभाव का अत्यंत उच्छेद होने से अति उत्कर्षमय स्थिति उत्पन्न होती है। चौथी। भूमिका के अंत में उत्पन्न होती हुई ब्रह्मसाक्षात्कार की स्थिति दृढ़तर हो जाती है। ६. पदार्थभावनी | पिछली पाँच भूमिकाओं के अभ्यास से स्वात्माराम अर्थात् अपने आप में अपनी परम आनंदमय स्थिति बनती है। बाह्य और आभ्यंतर पदार्थों के साथ जुड़े हुए संस्कारों का इतना पार्थक्य हो जाता है कि उनकी भावना तक मन में नहीं उठती। अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर पदार्थों की व्यक्त-अव्यक्त भावना शेष नहीं रह पाती। पदार्थों की अभावना के कारण इसे पदार्थभावनी भूमिका कहा जाता है। ७. तुर्यगा ___पूर्वोक्त छ: भूमिकाओं के चिर अभ्यास के उपरान्त जहाँ स्व-पर का भेद नहीं रह पाता, जो स्व-भाव में एक निष्ठावस्था है, उसे तुर्यगा भूमिका कहा जाता है।
जागर्ति (जागृति), स्वप्न तथा सुषुप्ति- इन तीनों अवस्थाओं में अतीत होने के कारण इसे तुर्यगा और चौथी कहा गया है। संस्कृत में तुर्य या तुरीय शब्द चतुर्थ- चौथे के अर्थ में है।
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