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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन
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महर्षि व्यास ने सप्तविध प्रज्ञाओं का विवेचन करते हुए कहा है- चित्त से अशुद्धि रूप आवरण और मल के दूर होने के अनंतर यदि प्रत्ययान्तर- अन्य प्रकार की प्रतीति हो तो विवेक के फलस्वरूप सात प्रकार की प्रज्ञाएँ स्फुरित होती हैं, जो इस प्रकार हैं
समस्त हेय- त्यागने योग्य पदार्थ परिज्ञात हो चुके हैं, इस संदर्भ में अन्य परिहेय नहीं हैं, ऐसा उद्बोध होना प्रथम प्रज्ञा है। ___ समस्त हेय-हेतु- त्यागने योग्य कार्यों के कारण क्षीण हो चुके हैं। उनमें कोई क्षेतव्य- क्षीण करने योग्य नहीं बच पाया है, यह दूसरी प्रज्ञा है।
निरोध-समाधि द्वारा हेयत्व-भाव स्वायत्त हो चुका है, यह तीसरी प्रज्ञा है।
विवेकख्याति के अधिगत होने का उपाय भावित हो चुका है, अनुभूति का विषय बन चुका है, यह चौथी प्रज्ञा है। ___ इनके अतिरित तीन प्रज्ञाएँ चित्त-विमुक्ति मूलक हैं- बुद्धि चरिताधिकार हो चुकी है अर्थात् भोग और अपवर्ग निष्पादित हो चुके हैं और कोई अर्थ शेष नहीं रहा है। इस प्रकार बुद्धि व्यापार की विरति हो गई है, यह चित्त-विमुक्ति की पहली प्रज्ञा है। ____ समस्त गुणगिरि-शिखर-च्युत- पर्वत की चोटी से गिरे हुए उपलखंड- पत्थर के टुकड़े के समान निरवस्थान होकर स्वकारण में प्रलयोन्मुख हुए है, उस कारण के साथ अस्त हो रहे हैं, इस प्रकार उन विप्रलीन गुणों का प्रयोजन न होने से उत्पादन न होना चित्त-विमुक्ति की दूसरी प्रज्ञा है।
तीसरी प्रज्ञा में पुरुष (आत्मा) गुण संबंध से अतीत, स्वरूप-मात्र-ज्योतिर्मय, विगतमल- मल रहित या सर्वथा निर्मल कैवल्य रूप होता है।
इन सप्तविध प्रज्ञाओं का अनुदर्शन करने वाला कुशल कहा जाता है। चित्त के प्रलीन होने पर उसे मुक्त कहा जाता है, क्योंकि उस समय वह गुणों से अतीत हो जाता है। अनुचिन्तन __चित्त-विमुक्ति के पथ पर उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ निवृत्ति का क्रम इन प्रज्ञाओं में वर्णित है। निवृत्ति मोक्ष का बीज है। जैन दर्शन अंतत: निवृत्तिपरक है। असत्- अशुभ-प्रवृत्ति से सत्शुभ-प्रवृत्ति में आते हुए जीव को अंत में उसका भी निरोध कर निवृत्ति का अवलंबन करना होता है।
| १. योगशास्त्र, साधनपाद, सूत्र-२६ (भाष्य).
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