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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन ।
समीक्षा
व्यास-भाष्य में वर्णित पहली चित्त-भूमि वह चैतसिक स्थिति है, जहाँ सत् चिंतन या विचार के लिए अपेक्षित स्थिरता है ही नहीं। इस भूमिका में स्थित व्यक्ति सत्-असत् के मध्य भेद करने की जरा भी क्षमता लिए नहीं होता। यह अविकास की निम्नतम दशा है। जैन दर्शन की भाषा में यह मिथ्यात्व के तीव्रतम उदय और ज्ञानावरणीय के सघन आवरणों द्वारा ज्ञान के आच्छन्न रहने की स्थिति है।
दूसरी भूमिका में मोह की घोर प्रबलता रहती है। भौतिक एषणाओं अथवा वासनाओं में व्यक्ति अंधा बना रहता है। तत्त्व-चिंतन की योग्यता ऐसे व्यक्ति में कहाँ से आएगी ? जैन दृष्टि के अनुसार इसमें प्रथम भूमिका से चले आते श्रद्धानमूलक एवं आचारमूलक मोह ही अजस्र धारा का समावेश है।
तीसरी भूमिका विकास और अविकास का मिला जुला रूप है। कभी परिणामों में चंचलता तथा कभी स्थिरता- दोनों आती रहती हैं। यह क्रम तरतमता लिए हुए अनेक रूपों में चलता है। जब तक चित्तमें स्थिरता व्याप्त होती है, वह सत की ओर उन्मुख होता है। जैसे ही अस्थिरता आ जाती है, वह असत् की ओर झुक जाता है। इस उत्थान और पतन की तरतमता के कारण इसमें असंख्य स्थितियाँ बनती हैं। यह मिश्र गुणस्थान जैसी दशा है, जहाँ न संपूर्णत: सम्यक्त्व ही है और न संपूर्णत: मिथ्यात्व ही। । ये तीनों भूमियाँ आत्मा के विकास की स्थितियाँ नहीं हैं। अविकास की दशाएँ हैं। पहली और दूसरी तो संपूर्णत: अविकास से जुड़ी हुई हैं। तीसरी भी अविकास की ही दशा है। विकास केवल कदाचित् होता है, जो टिकता नहीं। जैसे ही अस्थिरता, चंचलता का प्राबल्य होता है, अविकास विकास को दबा देता है। इसमें विकास से अविकास बलवत्तर रहता है।
पंडित सुखलालजी संघवी इन तीनों भूमियों को योग-कोटि में गिनने योग्य नहीं मानते। उनका अभिमत है- इन पाँच चित्तों में पहले दो तो क्रमश: रजोगुण और तमोगुण की बहुलता के कारण निःश्रेयस्-प्राप्ति में हेतु तो हो ही नहीं सकते, बल्कि वे उल्टे श्रेयस् के बाधक हैं, जिससे वे योग-कोटि में गिनने योग्य नहीं हैं। अर्थात् चित्त की उन दो स्थितियों में आध्यात्मिक अविकास होता है। विक्षिप्त चित्त किन्हीं किन्हीं तात्त्विक विषयों में समाधि पाता है, किंतु समाधि के सम्मुख अस्थिरता इतनी अधिक होती है, जिससे वह योग कोटि में गिनने योग्य नहीं है।
एकाग्र और निरुद्ध- इन दो चित्तों के समय में ही जो समाधि होती है, उसे योग कहा जाता है। एकाग्र चित्त के समय में जो योग होता है, वह असंप्रज्ञात है।'
१. दर्शन अने चिंतन, खंड-२, पृष्ठ : १०१५ (टिप्पण).
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