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सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम
गुणस्थानों
की अपेक्षा की अपेक्षा
जैन शास्त्रों के अनुसार सम्यक् दर्शन की प्राप्ति नैसर्गिक स्वभाव से तथा आधिगमिक- बाह्य निमित्त से- दो तरह से बताई गई है।
योगवासिष्ठकार ने भी सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति गुरुप्रोक्त अनुष्ठान से या एक जन्म अथवा अनेक जन्मों के संस्कारों से- दो प्रकार से बतलाई है।
मात्मा है,
रने वाले
होने का
चौदह भूमियाँ
जैन दर्शन में अध्यात्म-विकास के सोपान-क्रम के रूप में जैसे चौदह गुणस्थान प्रतिपादित हुए हैं, योगवासिष्ठ में भी चौदह भूमियों का वर्णन है। उसमें सात अज्ञान भूमियाँ और सात ज्ञान भूमियाँ
तद्विषयक
तों का
अज्ञान दु:ख एवं अध:पतन का कारण है। वह मोहजनित है। अज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि आत्मा को अपने स्थान से च्युत कर, उसे अधिकाधिक अध:पतन की ओर ले जाती है। अज्ञान भूमियों में अज्ञान की ओर आगे से आगे वर्धनशील अवस्थाओं का विवेचन है।
ज्ञान, अज्ञान का विरोधी है। ज्यों-ज्यों वह विकास पाता जाता है, तब साधक की आत्म-स्थिति उत्तरोत्तर उन्नत हो जाती है। योगवासिष्ठकार के शब्दों में सत्यावबोध हो जाना ही मोक्ष है। सत्यावबोध हो जाने पर जीव को फिर से संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता।
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हेतु । उसी
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सात ज्ञान भूमियों का विस्तार
सात ज्ञान भूमियों में ज्ञान के क्रमिक विकास और साथ ही साथ छूटती जाती आसक्ति एवं ममता का वर्णन है। उनमें आत्मा द्वारा शुद्ध स्वरूप-प्राप्ति, ब्रह्म-साक्षात्कार किए जाने तक का विवेचन है। योगवासिष्ठ में शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थ-भावनी तथा तुर्यगा इन सात ज्ञान भूमियों का उल्लेख है। १. शुभेच्छा | "मैं मूढ़ बना क्यों बैठा हूँ ? मैं शास्त्रों के सहारे और सत्पुरुषों के संपर्क से परम तत्त्व का साक्षात्कार करूँ।" इस प्रकार वैराग्य से जो ज्ञान पाने की उत्कंठा होती है, उस शुभेच्छा कहा जाता है।
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१. तत्त्वार्थ-सूत्र, अध्याय-१, सूत्र-३.
२. योगवासिष्ठ, उपशम प्रकरण, अध्याय-७, श्लोक-४. ३. योगवासिष्ठ, उपशम प्रकरण, अध्याय-११८, श्लोक-४.
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