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सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम
न्दा एवं गर्दा " इस प्रतिज्ञा
व्रत-पालन ज्जु जीते जी यह प्रश्न है,
है। ज्यों-ज्यों भावों की उज्ज्वलता बढ़ती है, त्यों-त्यों एक अभिनव शक्ति निष्पन्न होती है। प्रमाद का दुर्गम दुर्ग टूटने लगता है। साधक एक श्रेणी आगे बढ़ जाता है। तब उसकी आभ्यंतरिकआत्मप्रदेशगत अनुत्साह-वृत्ति भी नष्ट हो जाती है। वह भीतर से और बाहर से अनवरत बढ़ते हुए उत्साह से आत्मविभोर, आत्मोत्साहित हो उठता है। तब 'संयत के साथ जुड़ा प्रमत्त विशेषण 'अप्रमत्त' के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यह सप्तम गुणस्थान है।
जैसा कि कहा गया है- इसका आधार भावों की उज्ज्वलता एवं शुद्धि है। जब-जब षष्ठ गुणस्थानवर्ती साधक प्रमाद के विपरीत भावों द्वारा अपना आत्मबल संजोता है, वह सप्तम गुणस्थान में पहुँचता है। आंतरिक प्रमाद बड़ा दुर्जेय हैं। ज्यों ही यह बलवत्तर होता है, साधक को पुनः षा गुणस्थान में धकेल देता है। साधक फिर जोर लगाता है, जूझता है, प्रमाद को पराभूत कर लेता है, तब वह सप्तम गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। यह क्रम अनेक बार चलता है। अंत में प्रमाद का पराभव हो जाता है और साधक अप्रमत्तता प्राप्त कर लेता है।
प्रयुक्त नहीं । नीचे गिर
यम के प्रति
है। यहाँ
कल्याण के कभी थोड़ी
८. निवृत्ति-बादर गुणस्थान
आठवाँ निवृत्ति-बादर गुणस्थान है। 'बादर' जैन वाङ्मय का एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ स्थूल है। इस गुणस्थान में स्थूल रूप में, थोड़े रूप में कषायों से- क्रोध, मान, माया और लोभ से निवृत्ति होती है। अप्रमत्त अवस्था तो इससे पूर्ववर्ती अवस्था में प्राप्त हो ही जाती है। इस गुणस्थान में आत्मा अपनी शक्ति वृद्धिंगत करने के लिए उद्यत रहती है, जिससे अवशिष्ट- बचे हुए मोह-मल्ल से लोहा ले सके, टक्कर ले सके, उसे विध्वस्त कर सके।
मोह के साथ होने वाले विकराल युद्ध के लिए आत्मा की यह तैयारी की स्थिति है। निवृत्ति बादर गुणस्थान का दूसरा नाम 'अपूर्वकरण' है। इस गुणस्थान में मोह से जूझने के लिये आत्म-बल की आवश्यकता होती है। फलत: इसमें अभूतपूर्व आंतरिक शुद्धि, शक्ति स्फुरित होती है। अपूर्व- जो पहले कभी निष्पन्न नहीं हुए, जैसे परिणामों से आत्मा इस गुणस्थान में संयुक्त हो जाती है। इसी कारण इसे अपूर्वकरण कहा जाता है।
नग्न होकर । से पृथक्
सावधानी ना है, पर साहात्मक
ती रहती
उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी
इस गुणस्थान से आगे विकास की दो श्रेणियाँ आविर्भूत होती हैं-१. उपशम श्रेणी, २. क्षपक श्रेणी।
। उपशम श्रेणी में आरूढ़ आत्मा कषायों को उपशांत करती हुई आगे बढ़ती है। उपशम का तात्पर्य १. श्री केवल नवकार मंत्र प्रश्नोत्तर ग्रंथ, भाग-२, पृष्ठ : ८३, ८४.
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Fridalemia
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