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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन
उसके परिणाम पूरी तरह न मिथ्यात्व-युक्त होते हैं और न सम्यक्त्व-युक्त ही। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व घुले-मिले रहते हैं। यह अवक्रांति की स्थिति है।'
४. अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान ___यह चौथा गुणस्थान है। यहाँ दृष्टि तो सम्यक् हो जाती है, पर तब तक आत्मा अपने को विरतिप्रत्याख्यान या व्रतों के साथ जोड़ नहीं पाती। सम्यक् दृष्टि पहले यथा प्रसंग विस्तार से वर्णित है।
५. देशविरति गुणस्थान
विश्वास या आस्था की शुद्धि होने के अनंतर आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होती है। केवल सत् तत्त्व के प्रति श्रद्धा से लक्ष्य सिद्ध नहीं होता, जब तक उसके अनुरूप चारित्र के क्षेत्र में अग्रसर न हो। ___ शास्त्रीय भाषा में मोहनीय की दूसरी शक्ति चारित्रमोह को शिथिल करने के लिए आत्मा प्रेरित और प्रगतिशील होती है। जब तक चारित्रमोह शिथिल नहीं होता, तब तक आत्मस्थिरता नहीं होती, पर-परिणति- आत्मा के सिवाय दूसरे भावों में परिणमन का त्याग नहीं होता। अपना अंतर्मन जागरित कर आत्मा अपने सद् विश्वास के अनुरूप असत् से विरत होने के लिए पराक्रमशील नहीं होती। अंशत: वह स्वरूप में अधिष्ठित होती है। यह सत् चर्या या सत् चारित्र में पहला पदन्यास है। इसे देशविरति कहा जाता है। यह पंचम गुणस्थान है।
इसमें साधक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों की एक देशीयआंशिक आराधना में संलग्न होता है। दूसरे शब्दों में अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत अपनाता है।
देशविरति-गुणस्थानवर्ती या देशविरत साधक द्वारा, जिसे श्रावक या श्रमणोपासक कहा जाता है, ग्रहण करने योग्य व्रतों की संरचना में जैन तत्त्ववेत्ताओं की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है। सर्वविरति उच्च या सर्वविरत साधकों की, मुनियों की जीवन-चर्या में या संयमाराधना में सर्वथा एकरूपता संभाव्य है, क्योंकि पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन को छोड़कर वे केवल व्रतमय वैयक्तिक
१. (क) षट् खंडागम, प्रथम खंड, पुस्तक-६, जीवस्थान चूलिका-१२-१३ :
धवला टीका सहित, पृष्ठ : २४७-२६७. (ख) तत्त्वसार, गाथा-१३, पृष्ठ : १६. (ग) मूलाचार, भाग-२, गाथा-११९७. (घ) तत्त्वार्थ राजवार्तिक, भाग-२, अध्याय-९, (प्रथम सूत्र की व्याख्या), पृष्ठ : ५८९. (ङ) पंच संग्रह, प्राकृत अधिकार-१, २०-२१. (च) गोमट्टसार (जीवकांड),५६. ५७. १४९. (छ) द्रव्य संग्रह, टीका-१३. ३५.
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