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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
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इसका आशय यह है कि यदि कोई स्वयं नमस्कार न कर सके तो कम से कम वह उनकी प्रशंसा या अनुमोदना तो करे।
यहाँ नमस्कार का फल मिले या न मिले, ऐसा कहने में फल-प्राप्ति में संशय का भाव नहीं है। नमस्कार का फल तो मिलता ही है। उसका फल न मिल पाए, ऐसा कभी नहीं होता, किन्तु जो नमस्कार नहीं करते, वे कम से कम अनुमोदना तो करें, कुछ निकट तो आएं। उनमें प्रेरणा जगाना, आत्म-चेतना उत्पन्न करना, यहाँ व्यंजनागम्य अर्थ है।
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आचार-दिनकर-संदर्भ में सिद्ध-स्तुति
आचार्य श्री वर्धमान सूरि ने स्वरचित 'आचार-दिनकर-संदर्भ' नामक ग्रंथ में मंगलाचरण के रूप में छ: श्लोक लिखे हैं। उन्होंने तीसरे श्लोक में सिद्ध भगवान् की स्तवना की है।
उन्होंने लिखा है- "जिन्होंने दीर्घकालिक स्थिति से युक्त अत्यंत निकाचित- प्रगाढ़ बंधन द्वारा बंधे हुए, विषम, विपरीत, विपाक-युक्त, अभेद्य- जिन्हें भिन्न कर पाना, मिटा पाना कठिन है, उन अष्टविध कर्मों को नष्ट कर डाला और परम-पद- मोक्ष प्राप्त कर लिया, वे सिद्ध भगवान् हमें महती कार्य-सिद्धि प्रदान करें। वे हमारे मोक्ष रूप लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रेरक बनें।
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सिद्ध हमें अपने कार्य में सिद्धि प्रदान करें, ऐसा जो प्रस्तुत श्लोक में उल्लेख हुआ है, उसके साथ एक सूक्ष्म आशय संलग्न है। यह सुविदित है कि सिद्ध संसार से सर्वथा विमुक्त हैं। अनुग्रह, निग्रह आदि सभी भावों से वे अतीत हैं। इसलिए वे किसी को कुछ प्रदान करें, यह कदापि संभव नहीं है, किंतु एक भक्त, जब भक्ति के उद्रेक से ऐसा भाव प्रगट करता है, वहाँ सिद्ध भगवान् को वह अपने सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्वीकार करता है। ऐसी मानसिक, सात्त्विक प्रवृत्ति स्वयं ही एक ऐसे वातावरण का परिवेश या स्थिति का निर्माण करती है कि भक्त की वांछा स्वयं ही सफल हो जाती है, किंतु वह भक्त सफलता की फल प्राप्ति का महत्त्व भी उन्हीं को देना चाहता है। इसलिए भक्त के मुंह से ऐसी ही वाणी मुखरित होती है।
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साम्य का मोक्ष रूप फल __ आचार्य श्री मुनिसुंदर सूरि स्वरचित अध्यात्म-कल्पद्रुम नामक ग्रंथ में तत्त्वज्ञों को संबोधित करते हुए साम्य या समता की विशेषता बतलाते हैं
१. आचार-दिनकर-सन्दर्भ, श्लोक-३ : नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : २४१..
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