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णमो सिद्धाण पद: समीक्षात्मक अनशीलन
उठता है। वास्तव में मुमुक्षु आत्माओं के लिए यह चिरवांछित आनंदमयी वेला है।
आचार्य हरिभद्र सूरि ने सम्यक्त्व को कर्मों के वन को जलाने के लिए दावानल, मोक्षरूपी पादप का अनुपम बीज, संसार-आवागमन रूपी मगर से छुड़ाने में समर्थ, चिंतामणि रूपी रत्न से भी उत्तम, अनादि संसार-सागर में अप्राप्त पूर्व, सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म के अनुवेदन, उपशम तथा क्षय से आविर्भूत, प्रशम, संवेग, निर्वेद और अनुकंपा से अंकित तथा स्वभाव-परिणाम रूप कहा है।
सम्यक्त्व पा लेने का तात्पर्य 'स्व' एवं 'पर' के भेद को यथावत् रूप में हृदयंगम कर लेना है। स्व और पर का भेद ज्यों ही स्वायत्त हो जाता है, विपथगामिनी आंतरिक वृत्तियाँ स्वयं एक नया मोड़ लेने को उद्यत हो जाती हैं। अब तक बहिरात्म-भाव में ग्रस्त जीव अंतरात्म-भाव से संयुक्त हो जाता है। उसमें कर्तव्य या अकर्तव्य का विभाजन, भेद करने वाली बुद्धि उदित हो जाती है। अंत:स्थित सहज, शुद्ध परमात्म-भाव की उसे अनुभूति होती है। साध्य के सम्बन्ध में बद्धमूलक भ्रांत धारणा का अपगम हो जाता है। उसमें अस्थिर, नश्वर, विपरीत परणिामयुक्त पौद्गलिक भोगों- भौतिक सुखों के प्रति अनास्था तथा अपरिमित, स्थिर, उत्तम परिणाम-युक्त आध्यात्मिक सुख के प्रति आस्था उत्पन्न होती है।
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सम्यक्त्व का व्यावहारिक पक्ष
सम्यक्त्व का व्यावहारिक रूप सिद्ध, साधना और साधक के प्रति निष्ठा से संबद्ध है। जिन्होंने राग-द्वेष, ममत्व, मोह आदि को जीतकर समग्न कर्म-बंधनों के जाल से अपने को मुक्त करा लिया है, जो कार्मिक कलेवरमय आवरण से निकलकर, सिद्ध स्थान में पहुँचकर अव्याबाध तथा अखंड सुख में, आध्यात्मिक आनंद में, अधिष्ठित हो गए हैं, वे सिद्ध हैं।
वे महापुरूष- जो वीतराग, सर्वदर्शी तथा सर्वज्ञ हैं, पर सशरीर हैं, दूसरे शब्दों में जो जीवन्मुक्त की दशा में विद्यमान हैं, वे 'अर्हत्' कहे जाते हैं। वे भी लगभग साधना की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए होते हैं। उन्होंने जो जीवन-शुद्धि का मार्ग दिखलाया, उस पर गतिशील होना साधना है। जो सांसारिक मोह-माया से छूटकर प्राणपण से उस पर चलते हैं, वे साधक या साधु हैं। ____ इनके प्रति स्थिर-निष्ठा व्यक्ति को सत्योन्मुख बनाए रखती है, जीवन-शुद्धि के पथ पर गतिशील रहने की प्रेरणा देती है। यह निष्ठा, आस्था सम्यक्त्व का व्यावहारिक रूप है। चार मंगल, चार लोकोत्तम, चार शरणों का स्वीकार उसको विशदता देता है। उनका शब्द-बद्ध रूप इस प्रकार हैलोक में अरिहंत, सिद्ध, साध और सर्वज्ञ-प्रज्ञप्त धर्म. ये चार मंगल हैं। लोक में अरिहंत, सिद्ध,
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१. समराइच्चकहा, प्रथम-भव, पृष्ठ : ९०.
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