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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
रहे। मनुष्य का मन बड़ा चंचल है। क्षण-क्षण उसमें तरह-तरह के विचार आते रहते हैं। यह सत्पच | से विचलित भी हो सकता है, अतः पल-पल जागरित रहते हुए उसे संप्रेरित करना आवश्यक है। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रसंग में योगिराज श्री कृष्ण ने अर्जुन को जब कर्मयोग का उपदेश दिया | तो अर्जुन कहने लगा कि भगवन् ! आपने जो मुझे मार्ग बतलाया है, मैं चंचलता के कारण अपने आप में उस पर टिक नहीं पा रहा हूँ। भगवन् ! यह मन बहुत चंचल है, प्रमथनशील है, प्रबल और दृढ़ है। इसको निगृहीत करना, रोकना या वश में करना उतना ही दुष्कर है, जितना वायु को रोकना। अर्थात् जिस तरह हवा को कोई रोक नहीं सकता, उसी प्रकार मन की चंचलता, अस्थिरता को कोई। | रोक नहीं पाता । मैं क्या करूँ ? इस पर श्री कृष्ण ने कहा- निःसंदेह यह मन बड़ा चंचल है। कठिनता से वश में आने वाला है, किंतु अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसको वश में किया जा सकता है।
जैसे गीताकार ने कहा है- निरंतर अभ्यास करने से वैराग्य - भावना को उद्दीप्त करते रहने से मन | को जीता जा सकता है । सम्यक्त्व के प्रसंग में जो तरह-तरह से उसके पोषण के उपाय बतलाए हैं, वे इसीलिए हैं कि मानसिक दुर्बलता एवं चंचलता के कारण कहीं सम्यक्त्व की हानि न हो जाए।
गीता में आया हुआ अभ्यास शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ सम्यक्त्व के संबंध में जो कहा गया है, वह अभ्यास की सार्थक पद्धति है । अभ्यास से किसी श्रेयोमय तत्त्व को बार-बार आवर्तन करने से | संस्कार जमता है । वैराग्य भाव परिपुष्ट होता है ।
जो साधक सम्यक्त्व के इन सड़सठ बोलों का बार-बार अनुचिंतन, अनुभावन एवं अभ्यास करता है, उन पर मनन एवं निदिध्यासन करता है, उसके मन से निःसंदेह दुर्बलता निकल जाती है, वह सांसारिक आकर्षण, भोग, यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि किसी के भी द्वारा अपने सत्पथ से विचलित नहीं | होता । उस पर अडिग भाव से टिका रहता है। ऐसा होने से उसकी आराधना रूपी अट्टालिका सुदृढ़ होती जाती है । गुणस्थानमूलक साधना के सोपानों द्वारा आगे बढ़ने का उसमें उत्साह जागता है । वह | अपनी आध्यात्मिक यात्रा में अपरिश्रांत रूप में आगे बढ़ता जाता है, कहीं रुकता नहीं ।
सम्यक् दृष्टि मोक्षानुगामी आयाम
जैन योग के आविष्कर्ता, प्रबुद्ध मनीषी आचार्य हरिभद्र सूरि ने 'योगबिंदु में एक स्थान पर लिखा है
ग्रंथी-भेद हो जाने पर साधक की दृष्टि सम्यक् हो जाती है। वह उत्तम भाव निष्पन्न मोक्षानुगामी
१. श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ६ श्लोक-३१-३३.
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