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Paisa
सिद्धत्व-पथ : गणस्थानमूलक सोपान-क्रम
कदाचित् कोई सम्यक्त्वी किसी विशिष्ट धर्मलाभ या धार्मिक प्रभावना आदि के हेतु कोई ऐसा कार्य करे, जो सम्यक्त्व के विरुद्ध हो तो उसे सम्यक्त्व भंग का दोष नहीं लगता।'
भी कहा के जीवन का भंग
[ धमकी पड़े तो
समीक्षा
आगार या अपवाद का अभिप्राय यह है कि जहाँ साधक में उतनी शक्ति उत्पन्न नहीं हुई हो कि वह किसी भी कठिनाई या विपरीतता के साथ जूझता हुआ अपने व्रत पर टिका रहे, वैसी स्थिति में वह आगार- अपवाद स्वीकार करता है, जो उसकी दुर्बलता से संबद्ध है।
जो पुरुष शौर्य, धैर्य, गांभीर्य आत्म-पराक्रम और दढ़ता के धनी होते हैं, उनके लिये अपवाद नहीं हैं, क्योंकि उनके तो अस्थि-मज्जा के कण-कण में धर्म व्याप्त होता है। उनके प्राण भी चले जाएं तो भी वे सम्यक्त्व के विपरीत कार्य नहीं करते, ये अपवाद उनके लिए नहीं हैं।
यहाँ एक बात पर ध्यान देना आवश्यक है। जैन धर्म सार्वजनीन है। वह सबके लिए है। इसमें एक ओर जहाँ असीम आत्मबल के धनी वीर पुरुष आते हैं, वहाँ दूसरी ओर इसका साधारण लोगों के लिए भी मार्ग खुला है। वे अपनी शक्ति के अनुसार कुछ अपवाद या विकल्प रखते हुए सम्यक्त्व एवं साधना-पथ स्वीकार करते हैं। उनके मन में भाव या संकल्प यही रहता है कि वे उत्तरोत्तर अपना आत्मबल बढ़ाते जाएंगे, अपनी दुर्बलताओं को जीतते जाएंगे, अपने आगारों को कम करते जाएंगे।
ऐसे शुभ अध्यवसाय के परिणामस्वरूप वे ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेंगे कि फिर उनको अपवाद ग्रहण करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
जैन दर्शन का यह चिंतन बड़ा मनोवैज्ञानिक है। इससे हर किसी को धर्माराधना का और आत्मविकास का सुअवसर प्राप्त होता है।
ण लेने विपरीत
पूल कर सम्यक्त्व विपरीत । करना
णों को
कारण
११. सम्यक्त्व की छ: भावनाएं
__ भावना और क्रिया का घनिष्ठतम संबंध है। कोई भी व्यक्ति जब किसी कार्य को करने हेतु उद्यत होता है तो सबसे पहले उसके अंत:करण में उस कार्य का एक भावात्मक चित्र अंकित होता है। तद्विषयक भावना उत्पन्न होती है। भावना परिपक्व होकर क्रिया के रूप में परिणत होती है। परिपक्व या सुदृढ़ भावनापूर्वक जो क्रिया होती है, वह सुस्थिर होती है, टिकती है, उसका उत्तम फल प्राप्त होता है। वह सार्थक होती है। इसलिए भावना पर बहत बल दिया गया है। आध्यात्मिक साधना में तो भावना का अत्यधिक महत्त्व है।
प्रशंसा
पर करे
१. जिणधम्मो, पृष्ठ : ११६, ११७.
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