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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन -
करके कहे गए हैं। साधारण लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें बार-बार समझाना आवश्यक है, इसलिये मोक्ष के संबंध में जो-जो बातें बतलाई गई हैं, उनमें से कतिपय का संकेत पहले भी यथास्थान किया गया हैं।
प्रस्तुत संदर्भ में उत्तराध्ययन-सूत्र में कहा गया है कि कई जीव उत्कृष्ट, जघन्य तथा मध्यम अवगाहना में तथा ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में अथवा तिर्यक्लोक में, समुद्र में, यान में तथा जलाशय में सिद्ध होते हैं।
एक समय के अंतर्गत नपुंसकरूप में अधिक से अधिक दस, स्त्रीरूप में बीस तथा पुरुषरूप में एक सौ आठ जीव सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। एक समय में गृहस्थरूप में चार, अन्य-वेष में दस एवं स्व-वेष में एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। एक समय में उत्कृष्ट-अवगाहना में दो, जघन्य-अवगाहना में चार और मध्यम-अवगाहना में एक सौ आठ जीव सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। एक समय के उतर्गत ऊर्ध्वलोक में चार, समुद्र में दो, जलाशय में तीन, अधोलोक में बीस एवं तिर्यक् लोक में एक सौ आठ जीव सिद्ध हो सकते हैं।
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सूत्रकार ने आगे एक प्रश्न उपस्थित किया है- सिद्ध कहाँ प्रतिहत होते हैं- रुकते है ? कहाँ प्रतिष्ठित होते हैं? वे देह को कहाँ त्याग कर, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है- वे अलोक में प्रतिहत होते हैं। लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित-स्थित होते हैं। इस लोक मेंमनुष्यलोक में देह छोड़कर, लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं।
दशवैकालिक-सूत्र में आत्म-शुद्धि का चरम विकास : सिद्धत्व । दशवकालिक सूत्र में आत्मशुद्धि द्वारा विकास के आरोहण-क्रम का वर्णन किया गया है। वहाँ सबसे पहले तत्त्वज्ञान की चर्चा आई है। बतलाया गया है कि साधक, पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष के स्वरूप को जब जान लेता है, तब वह उन सब भोगों से जो दिव्य हैं- देव संबंधी या स्वर्ग संबंधी हैं तथा जो मानवों से संबंध रखने वाले हैं, विरत हो जाता है। फिर वह अभ्यंतर और बाह्य संयोंगों का परित्याग करता है। उन सब संबंधों को जो उसके बाहरी जीवन से, पारिवारिकता आदि से जुड़े हुए हैं, त्याग देता है, मन के ममत्वपूर्ण, मोहयुक्त विचारों को भी छोड़ देता है, जो उसे सांसारिक जीवन
१. उत्तराध्ययन-सूत्र, अध्ययन-३२, गाथा-४९-५४, पृष्ठ : ६४३, ६४४. २. उत्तराध्यन-सूत्र, अध्ययन-३२, गाथा-५५-५६, पृष्ठ : ६४४.
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