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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण ।
हमें
नमस्कार के माध्यम से यहाँ ग्रंथकार ने सिद्धत्वमूलक साधना पर बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में बड़ा संदर प्रकाश डाला है। सांसारिक आत्मा कर्मों के सघन आवरणों से आच्छन्न है। यह आवरण ईंधन के समान है। ग्रंथकार ने यह कल्पना की है कि ईंधन को भस्मसात् करने के लिये जैसे अग्नि की आवश्यकता होती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि द्वारा कर्म रूपी ईंधन को भस्मसात् किया जा सकता है।
यहाँ साधना में ध्यान को अधिक महत्त्व दिया गया है, क्योंकि ध्यान आंतरिक तप है। बाह्य तप की भी अपनी उपयोगिता है, परंतु जब तक ध्यान रूप आंतरिक तप सिद्ध नहीं होता, तब तक कर्मों के सूक्ष्म आवरण उच्छिन्न- नष्ट नहीं होते।
जैन साधना में प्राचीन काल में ध्यान-योग को अधिक महत्त्व दिया जाता था। आचारांग-सूत्र के प्रथम श्रुत-स्कंध के नवम अध्ययन में भगवान् महावीर के तपोमय जीवन का जो वर्णन आया है, वहाँ उन द्वारा विविध रूप में ध्यान किये जाने का उल्लेख है। उस संबंध में स्पष्ट विवेचन नहीं है। इसलिए आज हम नहीं जान पाते कि भगवान् महावीर किस प्रकार का ध्यान करते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि जैन साधना में ध्यान की अपनी विशेष पद्धतियाँ थीं। आगे उनका प्रचलन कम होता गया और वे लगभग विस्मृत हो गईं।
इस संदर्भ में अनुसंधाओं द्वारा विशेष रूप से गवेषणा किया जाना वांछनीय है।
पान
श्री हरिविक्रमचरित में सिद्ध-प्रणमन
श्री जयतिलक सूरि विरचित श्री हरिविक्रमचरित के अंतर्गत मंगलाचरण में पंचपरमेष्ठिनमस्कार में सिद्धों को नमन करने का उल्लेख है
सिद्धेभ्योऽपि नमस्तेभ्यो, मुक्तेभ्यो कर्मकश्मलैः ।
मूर्ध्नि चूड़ामणीयन्ते, लोकपुंसः सदैव हि ।। अर्थात् जो कर्मों की कालिमा से मुक्त हैं, लोक-पुरुष के मस्तक पर चूडामणि की तरह सुशोभित | , उन सिद्ध भगवंतों को सदैव नमस्कार हो।
सिद्ध परमात्मा के सर्वोत्कृष्ट, सर्वोच्च स्थान या पद का यहाँ संसूचन है। जहाँ एक और वह स्थान की दृष्टि से सर्वोच्च है, उसी प्रकार गुणात्मक दृष्टि से भी सर्वातिशायी स्थान है, क्योंकि कर्म-मल वहाँ अपगत हो गया है और आत्मा का परम निर्मल, उज्ज्वल, उत्कृष्ट स्वरूप अभिव्यक्त है।
श्री हरिविक्रमचरित. श्लोक-३, नमस्कार-स्वाध्याय (संस्कृत-विभाग), पृष्ठ : २९९.
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