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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन
पायेंगे ? यह शंका उठना स्वाभाविक है। । यथा प्रसंग संकेत किया जाता रहा है- आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। उनमे संकोच और विस्तार की असाधारण क्षमता है। विस्तार किया जाए तो सारे लोक को आवृत कर सकते हैं। एक सिद्ध की अवगाहना के क्षेत्र में अनेक सिद्धों के समाविष्ट होने का आशय यह है कि उनके आत्मप्रदेश संकुचितसंकीर्ण हो जाते हैं, अत: उस क्षेत्र में स्थित होने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती।
जैन दर्शन में आत्मा के असंख्य प्रदेशात्मक स्वरूप का जो प्रतिपादन किया गया है, वह न्याय | और युक्ति की कसौटी पर खरा उतरता है। इससे आत्मा का अपने कर्मों के अनुरूप प्राप्त छोटे या बड़े भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों में व्यापित्व सहज ही सिद्ध हो जाता है।
तप-सिद्ध और कर्म-क्षय-सिद्ध के लक्षण
नमस्कार-नियुक्ति में 'तप-सिद्ध' और 'कर्म-सिद्ध' के लक्षण बताते हुए कहा है कि जो पुरुष बाह्य और आभ्यंतर-तप से क्लेश अनुभव नहीं करते, वे दृढ़प्रहारी मुनि की तरह तप-सिद्ध कहलाते
जिन्होंने कर्म के समग्र अंशों का नाश कर डाला, वे 'कर्म-क्षय-सिद्ध' कहलाते हैं।
दीर्घ स्थिति-युक्त बद्ध अष्ट-विध कर्मों को ध्यानरूपी अग्नि द्वारा भस्मीभूत- क्षीण कर डालने | से सिद्धत्व प्राप्त होता है।
वेदनीय कर्म अधिक हैं। आयुष्य कर्म स्वल्प हैं, यह जानकर केवली भगवान् समुद्घात द्वारा समग्र कर्मों का क्षय कर डालते हैं। शरीर में रहते हुए आत्म-प्रदेशों को दण्ड, कपाट, मंथान तथा अंतररूप में पूर्ण करते हुए भाषा-योग का निरोध करके शैलेशी अवस्था प्राप्त करते हुए सिद्ध हो जाते हैं।
जैसे भीगी हुई साडी फैलाने पर शीघ्र सूख जाती है, उसी प्रकार प्रयत्न विशेष द्वारा कर्म रूपी जल अल्प समय में सूख जाता है। जिनेश्वर प्रभु द्वारा समुद्घात का यही अभिप्राय है। ___ जैसे अलाबु- तुंबिका, एरंड-फल, अग्नि-धूम तथा धनुष से छूटा हुआ तीर- इन सबकी पूर्व प्रयोग के कारण गति होती है, उसी प्रकार सिद्धों की गति या गमन होता है। ___ कर्मों से मुक्त जीव एक क्षण में उच्च लोक के अग्रभाग पर पहुँच जाता है। जैसे तुंबिका के ऊपर आठ बार मिट्टी का लेप किया हो और उसे पानी में डाल दिया जाए तो वह नीचे चली जाती है, किंतु ज्यों-ज्यों मिट्टी का लेप हटता जाए , वह पानी के स्तर से ऊँची आ जाती है। उसी प्रकार सिद्धों की गति को समझें। जैसे एरंड का फल बंधन के छिन्न हो जाने पर ऊँची गति करता है- ऊपर की दिशा
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