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णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक अनुशीलन
| मेरा स्वभाव नहीं है, मेरी विभाव- दशा है, क्योंकि उसकी निष्पत्ति आत्म-स्वभाव से नहीं हुई, परभाव से या कर्म-संश्लेष से हुई है । मुझे अपनी उस परम सिद्धावस्था को अधिकृत करना है, जिसे मैं अपने आत्मपराक्रम द्वारा ही स्वायत्त कर सकता हूँ। शुद्ध सिद्धात्म स्वरूप सिद्ध परमेश्वर के ध्यान से निश्चय ही मुझ में आध्यात्मिक ऊर्जा संस्फुरित होगी । "
सिद्धों के ध्यान का फल
नागसेनाचार्य ने ध्यान के फल का प्रतिपादन करते हुए इसी ग्रंथ में आगे लिखा है
जो अरिहंत और सिद्ध के ध्यान में लीन रहते हैं, उनको देखकर ग्रह तो क्या महाग्रह भी कॉप उठते हैं। भूत-प्रेत - शाकिनी - डाकिनी आदि का निवारण हो जाता है । क्रूर प्राणी, जीव-जन्तु क्षण भर में प्रशांत हो जाते हैं।
पर्यालोचन
आचार्य नागसेन ने यहाँ ध्यान के फल का उल्लेख करते हुए उन बाधाओं से मुक्त होने की ओर संकेत किया है, जिनका संबंध सांसारिक जीवन से है। इस संदर्भ में उन्होंने विपरीत ग्रहदशा, भूत| प्रेतादि निम्न कोटि के देव तथा हिंसक, निर्दयी प्राणियों की चर्चा की है। इनसे होने वाले कष्ट दूर जाते हैं, ऐसा निर्दिष्ट किया है।
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यहाँ आचार्य का भाव लौकिक जनों के बाह्य कष्टों की ओर रहा है । साधारणतया इसे देखने से लगता है- जैन आचार्य ध्यान का फल ऐसा कैसे बता सकते हैं ? उनके जीवन का लक्ष्य तो आध्यात्मिक विकास होता है। वे अपनी आत्मा का एवं सांसारिक जनों की आत्माओं का परम कल्याण | करने का लक्ष्य लेकर चलते हैं। इस अपेक्षा से ध्यान का फल मोक्ष ही होता है।
यद्यपि निश्चय दृष्टि से तो बात सही है, किंतु व्यवहारिक भूमिका पर भी सोचना आवश्यक होता | है। सांसारिक जन यदि ऐसी बाधाओं से उत्पीड़ित रहेंगे तो उन्हें ध्यान और साधना से जुड़ने का अवसर मिलना बहुत कठिन होगा।
शारीरिक अस्वस्थता, विपरीतता, पीड़ा आदि के कारण जब मनुष्य व्याकुल हो जाता है तो उसका मन स्वाध्याय, ध्यान आदि में लग नहीं सकता । अत: इन पीड़ाओं से छूटने की जो बात कही गई है, वह भी एक दृष्टि से संगत है, क्योंकि जो व्यक्ति ऐसी बाधाओं से रहित होता है, उसके लिये ध्यान आदि करना सहजतया संभव होता है।
१. तत्त्वानुशासन, श्लोक - १९७ - २०० : नमस्कार - स्वाध्याय (संस्कृत - विभाग ), पृष्ठ : २३२.
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