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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन ।
मछली- रसनेन्द्रिय की वासना के कारण नष्ट हो जाते हैं। एक-एक ने एक-एक इन्द्रिय की वासना | में ग्रस्त होकर प्राण गँवाए। वह प्रमादी मनुष्य क्यों नहीं नष्ट होगा, जो पाँचों इन्द्रियों- पाँचों विषयों का सेवन करता है।
परमात्म-भाव के साक्षात्कार में मनोजय का स्थान ____ योगाभ्यास या आत्म-साधना में मन का बड़ा महत्त्व है। कहा है- 'मन एव मनुष्याणां, कारणं बंध मोक्षयो:'- अर्थात् मन ही मनुष्य के बंध और मोक्ष का कारण है। आत्मसाक्षात्कारमूलक रत्नत्रय की आराधना में मन को जीतना और नियंत्रित रखना बहुत आवश्यक है। आचार्य हेमचंद्र ने इस पर बहुत बल दिया है। उन्होंने लिखा है कि मन को शुद्ध किए बिना यम, नियम आदि का पालन मात्र काय-क्लेश होता है, जो व्यर्थ है।
मन निरंतर उच्छंखल निशाचर के समान है, जो नि:शंक होकर भ्रमण करता है अथवा तीनों लोकों के प्राणियों को संसार रूपी गड्ढे में गिराता है- जन्म-मरण के चक्र में डालता है। तूफान की तरह चंचल मन उन लोगों को कहीं का कहीं ले जाकर ढकेल देता है, जो मुमुक्षु- मोक्ष पाने के इच्छुक हैं, जो तीव्र तपश्चरण में संलग्न हैं।
अत एव मन का नियंत्रण किए बिना जो योग-साधना करने में प्रयत्नशील होता है, वह उसी तरह उपहासास्पद बनता है, जैसे एक पंगु मनुष्य पैदल चलकर गाँव में पहुंचना चाहता है।
जब मन का निरोध हो जाता है तो कर्मों का आगमन भी पूर्णत: रुक जाता है, क्योंकि कर्माम्नव का मन से ही संबंध है । जो मन को निरूद्ध-नियंत्रित नहीं कर पाता, उसके कर्मों का अभिवर्धन होता जाता है।
मन की शुद्धि वह प्रदीप है, जो कभी निर्वपित नहीं होता- बुझता नहीं। वह निर्वाण मोक्ष के पथ को प्रकाशित करता है।
यदि मन शुद्ध हो गया तो जो उत्तम गुण जिन साधकों में विद्यमान नहीं हैं, वे भी विद्यमान के तुल्य हो जाते हैं, क्योंकि मन: शुद्धि से उन गुणों का उत्तम फल साधक को स्वयमेव उपलब्ध हो जाता है। यादि मन की शुद्धि नहीं हो पाई हो तो उत्तम गुण होते हुए भी न होने के तुल्य हैं। अत एव विवेकशील पुरूषों को सबसे पहले अपने मन को शुद्ध करना चाहिए।
जो मन का परिशोधन किए बिना मोक्ष हेतु तपश्चरण करते हैं, वे उन पुरूषों के समान हैं, जो नाव का परित्याग कर अपनी भुजाओं द्वारा अगाध, अपार सागर को पार करना चाहते हैं।
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