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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
सिद्धत्व-प्राप्ति का विश्लेषण
द्ध, बुद्ध, सम्यक्रत्नत्रय
आचार्य देवसेन ने सिद्धत्व-प्राप्ति के संबंध में प्रतिपादन करते हुए लिखा है--
आत्मा रूप से
प्रस्तुत
T शुद्ध
सर्वज्ञ- सयोग केवली- स्थानवर्ती मुनि अवशिष्ट रहे आयुष्य, नाम, गोत्र एवं वेदनीय..... इन चार अघाति कर्मों का नाश कर सिद्धत्व-पद प्राप्त कर लेता है। यह वह पद है, जो पहले कभी नहीं प्राप्त हुआ। इसलिये वह अभूतपूर्व है।
आगे ग्रंथकार सिद्ध-पद की विशेषता, पूज्यता आदि पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं एवं उनके अतिशय ज्ञान एवं अव्याबाध सुख का विश्लेषण करते हैं, उनके गुणों का प्रतिपादन करते हैं।
उनका ज्ञान करण और क्रम से रहित होता है। जिसके द्वारा कार्य किया जाता है, उसे करण कहते है। क्रमश: करने की विधि को क्रम कहा जाता है। सिद्ध के ज्ञान में करण और क्रम का |माध्यम नहीं होता। सिद्ध एक ही साथ सब कुछ जानते हैं।
मूर्त- पौदगलिक द्रव्य, अमूर्त्त- जीव-द्रव्य आदि सभी को जानते हैं। द्रव्यार्थिक-नय से जीव अमूर्त है, उसके अतिरिक्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल- ये चार द्रव्य सर्वथा अमूर्त हैं। सिद्ध इन सबको देखते हैं। मूर्त और अमूर्त सभी द्रव्य अनंत पर्याय और अनंत गुणयुक्त हैं। सिद्ध भगवान् समस्त मूर्त और अमूर्त द्रव्यों को एवं उनके अनंत गुणों और पर्यायों को एक ही साथ जानते हैं तथा देखते हैं। उनके ज्ञान की यह विशिष्टता है।
अंत में ग्रंथकार भव्यजनों को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि इस तत्त्व को जानकर वे लोकाग्र भाग में पहुँचने का प्रयत्न करें। सिद्धत्व की साधना में संलग्न बनें।
उक्त वर्णन के पश्चात् ग्रंथकार धर्म-द्रव्य का, सिद्धों की चरम शरीरता का- जन्म-मरणविमुक्तता आदि का विवेचन करते हैं।'
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रत्नत्रयरूप आत्मभाव : सिद्धत्व की भूमिका
तत्त्वसार में वर्णन किया गया है कि अपने आत्म स्वभाव का वेदन- अनुभवन करता हुआ जो जीव परभाव का त्याग कर निश्चल-चित्त होता है- चित्त में स्थिरता लाता है, वही जीव सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप है।
१. तत्त्वसार, पष्ठ-पर्व, गाथा-६७-७०, पृष्ठ : १२९-१३३. २. तत्त्वसार, गाथा-७१, ७२, पृष्ठ : १३४-१३६.
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