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णमो सिद्धाण पद: समीक्षात्मक अनशीलन
किया जा सके। वह सुख अरिहंत भगवान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी वीतराग प्रभु को प्रत्यक्ष है। वे उसे साक्षात् जानते-देखते हैं। छद्मस्थ जन, असर्वज्ञ पुरुष उन्हीं के वचन को प्रमाण मानकर मोक्ष के सुख का अस्तित्व जानते हैं।
यह ग्रंथ का अंतिम प्रशस्तिमूलक विवेचन है, जिसमें मोक्ष-सुख का विश्लेषण किया गया है। सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्ष-सुख प्राप्त करने का सत्पथ है।'
प्रशमरति प्रकरण में सिद्ध-पद का निरूपण । आचार्य उमास्वाति ने प्रशमरति प्रकरण के दूसरे श्लोक में पंचपद प्रणमन के अंतर्गत जो । सिद्ध-पद का कथन किया है, उसकी टीका करते हुए श्री हरिभद्रसूरि ने लिखा है
निष्ठित सिद्ध वे हैं, जिनके समस्त प्रयोजन परिसंपन्न या परिपूर्ण हो चुके हैं, कर्मों के विमोक्ष से सर्वथा छूट जाने से जो लोक के शिखर पर- लोकाग्र भाग में अध्यासित- अवस्थित हैं, जो आत्मसुख में तन्मय हैं तथा सादि और अनंत हैं।
सादि-अनंत का यह अभिप्राय है कि उनकी आदि तो है.... संसार में उनका आगमन हुआ, उन्होंने साधना की, किन्तु विमुक्त हो जाने के बाद उनका कभी अंत नहीं होगा। वे शाश्वत काल तक अर्थात् सर्वदा सिद्धत्व में संस्थित रहेंगे।
रत्नत्रय द्वारा मोक्ष की सिद्धि
सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप संपदा मोक्ष का साधन है। उनमें से किसी एक का भी अभाव होने पर मोक्ष-मार्ग सिद्ध नहीं होता । अर्थात् जब वे तीनों समवेत रूप में प्राप्त होते हैं, तभी मोक्ष सिद्ध होता है।
"जैसे पृथ्वी पर तीन रत्न माने जाते हैं- जल, अन्न और सुभाषित । यदि एक की भी कमी हो तो जीवन का आनंद खंडित हो जाता है, उसी प्रकार अध्यात्म की धरती पर इन तीनों में से एक की भी अपूर्णता आनंद की संपूर्णता में बाधक है।"
इन तीनों में पूर्ववर्ती दो अर्थात् सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान के होने पर भी चारित्र भजनीय
१. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, प्रशस्ति श्लोक-२५-३३, पृष्ठ : ६५०. २. प्रशमरति प्रकरण, मंगलाचरण-२, पृष्ठ : ३. ३. जैन दर्शन और कबीर- एक तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ : ११७.
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