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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण।
- चार प्रकार
रा दिये गए नहीं है, किंतु
में वह सिद्ध
का आरोप
पना-निक्षेप
माली के असंख्यातवें भाग जितनी तनुता- पतलापन है।
सीता- ईषद प्रारभारा भूमि के ऊपर एक योजन में जो अंतिम कोप है, उसके छठे भाग में सिद्धों र अवगाहना है- वहाँ सिद्ध अवस्थित है, जो तीन सौ तेंतीस धनुष का तीसरा भाग- कोष के छठे भाग जितना होता है। सिद्धों की उत्कृष्ट स्थिति उतनी होती है।
पासिल्ल- एक पार्श्व, उत्तान- तने हुए, टिके हुए, आधे झुके हुए या तिरछे रहे हुए अथवा बैठे हए, आत्मा जिस रूप में देह त्याग करती है, उसी स्थिति में सिद्धत्व निष्पन्न होता है।
इस भव से दूसरे भव में, स्वर्ग आदि में जाता हुआ जीव भिन्न आकार प्राप्त करता है, किंतु सिद्ध के तो कर्म नहीं है, इसलिये उनमें पूर्ववत् ही आकार होता है। तात्पर्य यह है कि अपवर्ग में (मोक्ष में) सिद्ध जीव अपने पूर्व भव के आकार में ही अवगाहना लिए स्थित रहते हैं।
इस भव को छोड़ते हुए सिद्धों का जो संस्थान होता है, उन्हीं प्रदेशों से युक्त संस्थान सिद्ध अवस्था में होता है। अंतिम समय में संस्थान इतना लम्बा या छोटा होता है, उससे तीन भाग कम सिद्धों की अवगाहना बतलाई गई है। वह अवगाहना उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष लम्बी, मध्य चार भाग विभिन्न प्रमाण-युक्त तथा जघन्य- कम से कम दो हाथ प्रमाण होती है। अंतिम भव में जो संस्थान होता है, सिद्ध अवस्था में उससे एक ततीयांश कम क्यों कहा गया है ?
शरीर के छिद्र या पोल के भाग १/३ हैं। वे प्रदेशों से संकुचित हो जाते हैं। इससे सिद्धों की अवगाहना उतनी रहती है।
- जो पाँच सौ धनुष प्रमाण-युक्त शरीर धारक जीव होते हैं, उनकी सिद्धावस्था में अवगाहना तीन सौ तेंतीस धनुष और धनुष के तीसरे भाग जितनी होती है। जिनका शरीर सात हाथ का होता है, सिद्धावस्था में उनकी अवगाहना चार हाथ तथा सोलह अंगुल होती है।
-निक्षेप के IT हो, जो : सिद्धत्व सामान्यत:
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सिद्धों की जघन्य- कम से कम अवगाहना एक हाथ और आठ आंगुल की होती है। सिद्ध जरामृत्यु से मुक्त होते हैं। इसलिए उनका कोई लौकिक संस्थान नहीं होता।
- जहाँ एक सिद्ध होते हैं, वहाँ भव का जन्म-मरण का क्षय कर मुक्ति प्राप्त किए हुए अनंत सिद्ध भी अवस्थित हैं। वे परस्पर अवगाह- युक्त होकर, लोक के अंत में- लोकान में संस्थित हैं।' विशेष
जहाँ अवगाहना की दृष्टि से एक सिद्ध द्वारा जितना स्थान आवृत्त है, वहाँ अन्य सिद्ध कैसे जा
भाग में
१. णमोक्कारणिज्जुत्ती, गाथा-७५-७९, नमस्कार-स्वाध्याय (प्राकृत-विभाग), पृष्ठ : १४५
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