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स्थान की
पेफ-भाव, गीय आदि
तो द्रष्टव्य
वनाशिता
गया है,
तब उसे
छोड़ने । सभी
कर देता
६ दर्शन
रण में द्व और
| फिर
द सदा
आगमों में सिद्धपद का विस्तार
प्रतिस्रोत मुक्ति का मार्ग
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दशवैकालिक सूत्र में संसार और मुक्ति का अतिसंक्षेप में अनुनोत मार्ग और प्रतिस्रोत मार्ग के रूप में विवेचन किया है। कहा है, बहुत से लोग अनुस्रोत की ओर प्रस्थान कर रहे हैं किन्तु जो पुरुष मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की ओर ले जाना चाहिए।
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अनुस्रोत संसार है, आसच है। लोग उस ओर जाने में सुख मानते हैं किन्तु प्रतिस्रोत संसार से | जन्म मरण से पार जाने का, विमुक्त हो जाने का मार्ग है । अत एव आचार में, संयम की साधना में | पराक्रमशील होकर, संवर एवं समाधियुक्त होकर साधु प्रतिस्रोत का आश्रय लेते हैं ।
पर्य्यवगाहन
स्रोत का अर्थ प्रवाह होता है। उसके पहले 'अनु' उपसर्ग लगा देने से अनुनोत बनता है। उसका | अर्थ बहते हुए प्रवाह के साथ वहते जाना है। स्रोत के पहले 'प्रति' उपसर्ग लगा देने से विपरीत अर्थ हो जाता है। बहते हुए स्रोत के साथ में न वहकर उसके सामने चलना प्रतिस्रोत कहा जाता है। । हुए प्रवाह के साथ बहते जाने में कोई जोर नहीं आता किन्तु बहते हुए प्रवाह के सामने चलना, तैरना बहुत कठिन है। जल के प्रवाह में बड़ा वेग होता है। यदि पूरी शक्ति द्वारा उसका सामना न किया जाए तो सम्मुख चलने वाले के पैर उखड़ जाते हैं। वह जल में बहकर नष्ट हो जाता है ।
बहते
इस उदाहरण से संसार और मुक्ति मार्ग का सूत्रकार ने बहुत ही सुंदर दिग्दर्शन कराया है । सांसारिक सुखों, अनुकूलताओं और भोगों का प्रवाह अनुस्रोत है, उसमें पड़कर बहना जरा भी कठिन नहीं है क्योंकि वहाँ बहने में अज्ञानी जीवों को सुख मिलता है । वे नहीं जानते कि वह सुख नश्वर है उसका परिणाम दुःखद है। इसलिये वे बहते जाते हैं। अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित होते जाते हैं। अनुम्रोत से निकलना बहुत दुष्कर है परंतु उससे निकले बिना जीव का कदापि कल्याण नहीं हो
सकता ।
दुःखों से छूटने की जिसमें उत्कृष्ट भावना जागरित होती है, वह आत्म-पराक्रम, संवर और | समाधि का सहारा लेकर उस प्रवाह से प्रतिकूल चलने को तत्पर होता है । जहाँ आत्म-पराक्रम आदि का संबल होता है, वहाँ कठिनाई और दुष्करता सरलता और सहजता में बदल जाती है।
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मानव का जीवन नया मोड़ लेता है । वह प्रतिस्रोत की दिशा में बढ़ता जाता है, जिसका तात्पर्य आत्मोन्मुखता है। उसकी वह गति उसे अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति कराती है। अशुद्ध अवस्था १. शकालिक सूत्र, द्वितीय चूलिका गाया २-४