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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
उनसे प्रश्न
क जीवों
अप्रथमत्व का यह अभिप्राय है, जो पहले-पहल प्राप्त नहीं होता, पहले से ही प्राप्त है। सिद्धों पर यह लागू नहीं होता। वे पहले से ही सिद्ध नहीं होते, वे तो कर्मों का क्षय कर प्रथम बार सिद्ध होते हैं। इसलिए उनमें अप्रथमत्व नहीं है।
इसी प्रकार अयोगी जीव, मनुष्य और सिद्ध, जो वास्तव में एक ही स्थिति में हैं, एक ही है, चाहे संख्या में एक हों या अधिक हों, प्रथम ही होते हैं क्योंकि अयोगावस्था, सिद्धावस्था उन्हें पहली बार मिलती है, जो सदैव रहती है। इसलिए अप्रथम का भंग वहाँ सिद्ध नहीं होता। सयोगावस्था जीव के साथ अनादिकाल से चली आ रही है क्योंकि वह कर्मावरण की स्थिति है। जब वह सर्वथा अपगत हो जाती है, तब अयोगित्व प्राप्त होता है- योग निरोध होता है, जो प्रथम है।
यम है ?
'थम वह त्व प्राप्त का है। आदि है। — होती। की आदि
माकंदी पुत्र के सिद्धत्व विषयक प्रश्न
व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र में एक प्रसंग आया है। भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में अवस्थित थे तब उनके अंतेवासी माकंदी पुत्र अणगार ने जो मंडितपुत्र अणगार की तरह प्रकृति से भद्र था, भगवान् की पर्युपासना करते हुए प्रश्न किया
भगवन् ! क्या कापोत-लेश्या-युक्त पृथ्वीकायिक जीव मर कर सीधा मानव का शरीर प्राप्त करता है? फिर क्या वह मानव शरीर में ही केवलज्ञान का उपार्जन करता है ? वैसा करके वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत होता है ? वह समस्त दु:खों का अंत करता है ? । भगवान् ने कहा- हे माकंदी पुत्र ! ऐसा ही होता है। वह कापोत-लेश्या-युक्त पृथ्वी कायिक जीव सीधा मनुष्य-भव प्राप्त करता है। उसी भव में केवलज्ञान का उपार्जन करता है। तदनंतर वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत होता है तथा समस्त दु:खों का अंत करता है।' _ तत्पश्चात् मांकदी पुत्र ने कापोतलेश्या-युक्त अप्कायिक जीव तथा कापोत-लेश्या-युक्त वनस्पतिकायिक जीव के विषय में भी वही प्रश्न किया। भगवान् ने उन प्रश्नों का पहले की तरह ही उत्तर दिया। माकंदीपुत्र को समाधान हुआ और उसने भगवान् के वचन को श्रद्धा पूर्वक स्वीकार किया। फिर वह भगवान् को वंदन-नमन कर श्रमण-निर्गथों के पास आया। उसने उन सभी के सामने कापोत-लेश्या-युक्त पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक जीव के विषय में वह सब कहा, जो भगवान् से सुना था।
श्रमण-निर्ग्रयों ने माकंदीपत्र की बात पर श्रद्धा नहीं की। वे भगवान महावीर के पास आये और उन्हें वंदन-नमस्कार कर, वह सब कहा, जो माकंदीपुत्र ने उनको बतलाया था और पूछा- भगवन् ! ऐसा हो सकता है?
धना से त प्रथम
में कहा
*संख्या
न पाया
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-१८, उद्देशक-३, सूत्र-२, पृष्ठ : ६७८.
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