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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
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जीवन को बदला तो इतना सहिष्णु, धीर, गंभीर और समत्व-भावयुक्त हो गया कि उसने मान आदि की परवाह न करते हुए घोर परिषहों, कष्टों को हंसते-हंसते स्वीकार किया।
उसका यह भाव कितना उज्ज्वल था- 'ये उपद्रवकारी तो मुझे कर्म-निर्जरा की ओर प्रेरित कर रहे हैं. ये तो मेरे उपकारी हैं- यों सोचता हुआ वह तपश्चरण में लगा रहा। केवल छ: महीने में जीवन के परमसाध्य को साध लिया, जिसे सामान्यजन अनेक जन्मों में भी साध नहीं पाते।
यह सच्चा हृदय परिवर्तन का प्रभाव है। जब आत्मा के भाव क्रमश: निर्मल और उज्ज्वल होते जाते हैं, बहुत लम्बे समय में होने वाला कार्य अत्यंत शीघ्र हो जाता है।
अर्जुनमाली जैसा ही एक उदाहरण बौद्ध साहित्य में-- अंगुलिमाल का प्राप्त होता है। अंगुलिमाल भयानक दस्यु था, जो अपने द्वारा मारे हुए मनुष्यों के हाथों की अंगुलियों की माला पहनता था परंतु अर्जुनमाली की तरह वह भी भगवान् बुद्ध के संपर्क में आया तो हिंसकभाव अहिंसा में बदल गया। वह भिक्ष बन गया। अर्जुनमाली की तरह उसने भी लोगों द्वारा दिये गये घोर कष्टों को समता से सहा । अंत में उसका परिनिर्वाण हो गया।
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प्रश्नव्याकरण-सूत्र में संवर-आराधना से मुक्ति
प्रश्नव्याकरण-सूत्र में आस्रव और संवर दो द्वार हैं। जहाँ आसव-द्वार में पाप-बंध के हेतुओं का विवेचन है, वहीं संवरद्वार में उन पापों का संवरण या अवरोध किस प्रकार होता है ?, इसका वर्णन है। संवर द्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार लिखते हैं- पाँच संवररूप महाव्रत सैंकडों हेतुओं, युक्तियों, उदाहरणों आदि के कारण अत्यंत विस्तीर्ण है। अरिहंत-शासन में इनका सार-संक्षेप में कथन किया गया है। विस्तार से प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएं होने से इनके पच्चीस भेद होते हैं। जो साधु ईर्या-समिति आदि से, पच्चीस भावनाओं से युक्त होता है, ज्ञान और दर्शन से युक्त होता है, कषाय-संवर और इंद्रिय-संवर द्वारा कषायों का और इंद्रियों के विषयों का संवरण या अवरोध करता है, जो स्वीकार किये गये संयम-योग का यत्नापूर्वक परिपालन करता है, अप्राप्त संयम-योग को प्राप्त करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता हैं तथा संपूर्णत: विशुद्ध श्रद्धानयुक्त होता है, वह संवरों की आराधना करके अशरीर- मुक्त हो जाता है। संवर का अत्यंत संक्षेप में निरूपण करते हुए कहा गया है- प्रमाद कर्म- आम्रव है तथा अप्रमाद अकर्म-संबर है।
| १. प्रश्नव्याकरण-सूत्र, श्रुतस्कंध-२, अध्ययन-५, सूत्र-१७१, पृष्ठ : २६४. २. अभिधनराजेन्द्र कोश, भाग-६, पृष्ठ : १४०४ (सूक्ति-सुधारस, खण्ड-६, पृष्ठ २०३)
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