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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
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उसके अंतर्गत कायोत्सर्ग की विशेष रूप से चर्चा हुई है। वहाँ कहा गया है कि कायोत्सर्ग को पारित करके पूर्ण करके साधक गुरु-वंदन करे तथा सिद्धों का संस्तवन करे।
मनि श्री चन्द्रशेखर विजयजी ने 'अरिहंत-ध्यान' नामक पुस्तक में प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग का व वर्णन किया है, जिससे साधक को उनका अभ्यास करने में मार्गदर्शन प्राप्त होता है। ____“दार्शनिक दृष्टि से कायोत्सर्ग का अर्थ भेद-विज्ञान से संबन्धित है। काया और आत्मा अलग-अलग दो शब्द हैं। एक जड़ है, दूसरा चेतन । एक ज्ञानी नहीं है, दूसरा ज्ञानी है। एक नश्वर है, दूसरा शाश्वत । ऐसा चिन्तन कर अपना ध्यान काय की ओर से आत्मा की ओर मोड़ना, शुद्ध आत्मस्वरूप का चिन्तन करना ही कायोत्सर्ग है।"३ _ "देह से भिन्न अपनी शुद्ध आत्मा की भावना- शुद्धोपयोग करना कायोत्सर्ग का आध्यात्मिक
पक्षों का मा-बुद्धि
प्रणियों
रूप हैं।४
न स्थान वेदनाएँ
अर्हम् नामक पुस्तक में युवाचार्य महाप्रज्ञ ने कायोत्सर्ग के आन्तरिक एवं बाह्य स्वरूप पर, जो क्रमश: चैतन्य के अनुभव तथा देह के स्थिरीकरण-शिथलीकरण से संबद्ध है, विशद विवेचन किया है।
। शोक होते,
पर्य्यवगाहन
'कायोत्सर्ग' जैन शास्त्रों का बहुत ही प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण शब्द है। यह काय + उत्सर्ग के मिलने से बना है। काय का अर्थ शरीर और उत्सर्ग का अर्थ त्याग है।
जीते जी शरीर का त्याग कैसे हो सकता है ? शरीर का त्याग तो तब होता है, जब आयुष्य पूर्ण हो जाता है। यहाँ कायोत्सर्ग का सीधा अर्थ लागू नहीं होता। शरीर को अपना मानने की मोहात्मक वृत्ति को मिटा देना कायोत्सर्ग है।
साधक, आत्मा में ऐसे परिणाम लाता है कि मैं शरीर नहीं हूँ। आत्मा हूँ। शरीर से सर्वथा भिन्न हूँ। शरीर को जिस रूप. जिस भाव में स्वीकार किये हुए हैं, उसका उत्सर्ग या त्याग करता हूँ। जैन | सिद्धांतों में इस स्थिति को भेद-विज्ञान कहा जाता है, जहाँ साधक शरीर और आत्मा की भिन्नता या पृथक्ता को स्वीकार करता है। फलत: मन में ऐसे परिणाम उत्पन्न होते हैं, शरीर से उसका ध्यान हट जाता है और आत्मा में लीन हो जाता है, उसे कायोत्सर्ग कहा जाता है।
तुर्याम णि
यार
१. उत्तराध्यन-सूत्र, अध्ययन-२३, गाथा-५२, पृष्ठ : ४५३. ३. राजेन्द्रकोष-'अ', पृष्ठ : २२९, २३०. ५. अर्हम्, पृष्ठ : ५८, ५९.
२. अरिहंत-ध्यान, पृष्ठ : ९३. ४. समाधि-सोपान, पृष्ठ : २३१.
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