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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
महाव्रतमूलक धर्म था। भगवान् पार्श्व के समय में चौथे महाव्रत को और पाँचवें महाव्रत को एक महाव्रत में ही सम्मिलित किया गया था। स्त्री को वहाँ परिग्रह के रूप में स्वीकार किया गया था। इसलिए वह चातुर्याम धर्म कहा जाता था।
दोनों एक ही धर्म की परंपरा हैं, फिर ऐसा भेद क्यों? लोगों में ऐसी चर्चा होती थी। उसके समाधान हेतु दोनों महापुरुषों ने परस्पर वार्तालाप किया। समाधान प्राप्त हुआ। जो पठनीय है।
उसी विचार-विमर्श या चर्चा के बीच मोक्ष का विषय आता है। सभी बाह्य भेदमूलक पक्षों का समाधान होने के बाद केशीकुमार श्रमण ने श्री गौतम स्वीमी से कहा- हे गौतम ! आपकी प्रज्ञा-बुद्धि उत्तम है, मेरा संदेह दूर हो गया है। एक संशय और है, उस विषय में आप मुझे बतलाएं।
हे मुनिवर ! इस संसार में शारीरीक और मानसिक दु:खों से बंधे हुए या पीड़ा पाते हुए प्रणियों के लिए कल्याण और शांति का निर्बाध स्थान कौन सा है ? आप किसे मानते है ? बतलाएं।
गणधर गौतम ने केशी कुमार श्रमण से कहा- लोक के अग्रभाग में एक ऐसा ध्रुव-निश्चल स्थान है, जिस पर पहुँचना, जिसे प्राप्त करना बहुत कठिन है। वहाँ वृद्धावस्था, मृत्यू, व्याधियाँ और वेदनाएँ नहीं है।
इस पर पुन: केशीकुमार श्रमण ने जिज्ञासा की वह स्थान कौन सा है ?
गौतम गणधर ने बताया- वह स्थान निर्वाण हैं, मोक्ष है, जो परमशांतिमय है, बाधा रहित है। शाश्वत है। जीवन की अंतिम सफलता है। लोकान में स्थित है। क्षेम, शिव और अनाबाध है।
भव-प्रवाह का-जन्म-मरण की परंपरा का अंत करने वाले महामुनि उसे प्राप्त करते हैं। वे शोक से मुक्त हो जाते हैं। उनका वहाँ शाश्वतरूप से वास होता है। अर्थात् वहाँ से वे कभी च्युत नहीं होते, किन्तु जैसा पहले बताया गया वह बहुत दुरारोह है अर्थात् उसे प्राप्त करना बहुत कठिन है। । यह प्रसंग गणधर गौतम और केशीकुमार श्रमण के वार्तालाप का सार रूप है। क्योंकि चातुर्याम
कहें या पंच महाव्रत कहें, बात एक ही है। इनका पालन करने वाले सभी साधकों का लक्ष्य निर्वाणसिद्धावस्था या मुक्तावस्था पाना है। उसी की यहाँ चर्चा है। कायोत्सर्ग : सिद्ध-संस्तवन
उत्तराध्ययन-सूत्र में साधु की रात में कैसी चर्या रहे, यह वर्णन आया है तथा प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन का वर्णन भी आया है।
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१. उत्तराध्यन-सूत्र, अध्ययन-२३, गाथा-७९-८४, पृष्ठ : ४०४, ४०५.
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