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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
में में भटकते
इस प्रकार इन दोनों में अल्प-बहुत्त्व की दृष्टि से बहुत बड़ा अंतर है। जैन गणना या गणित का यह बड़ा सूक्ष्म और रहस्यपूर्ण पक्ष है, जो आधुनिक विज्ञान से तुलनीय है।
जन्म-मरण में भेद यह नहीं रहता।
। लागू हुआ
जाता है। अभव्यों के की अपेक्षा की अपेक्षा
सिद्ध जीवों के उपपात का व्यवधान
गौतम ने प्रश्न किया- भगवन् ! कितने काल तक सिद्धगति सिद्धत्व से रहित प्रज्ञप्त कही गई है ? भगवन् ने उत्तर दिया- गौतम ! सिद्ध गति, कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छ: मास तक सिद्धत्व से रहित बतलाई गई है।
सिद्ध गति के सिद्धत्व से रहित रहने का तात्पर्य यह है कि किसी एक जीव के सिद्ध होने के पश्चात् दूसरा जीव सिद्ध होता है। उन दोनों के बीच काल की दृष्टि से कितना व्यवधान रहता है ? एक सिद्ध होने वाले जीव के बाद दूसरे सिद्ध होने वाले के बीच कम से कम एक समय का तथा अधिक से अधिक छ: मास का व्यवधान रहता है, अर्थात् इतने काल तक सिद्धगति नए सिद्ध होने से रहित होती है।
ऊपर सिद्धगति के सिद्धत्व रहित रहने की जो चर्चा आई है, उसीसे संबंधित एक दूसरे प्रकार से प्रज्ञापना-सूत्र में और वर्णन आया है। गौतम द्वारा भगवान से यह प्रश्न किया गया कि सिद्ध जीवों के उपपात के विरह का कितना समय है ? अर्थात् कितने समय तक नये सिद्ध उत्पन्न नहीं होते? उत्तर में बतलाया गया कि यह विरह काल- नये सिद्ध उत्पन्न न होने का काल कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक छ: मास का होता है।
सबसे कम - सिद्धत्व के अनुसार गेत करने
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सिद्ध गति का सिद्धत्व से विरहित रहने का काल तथा नए सिद्ध के उत्पन्न न होने का काल| ये दोनों वास्तव में एक ही बात है। जिन्हें दो प्रकार से प्रकट किया गया हैं। नये सिद्ध का उपपात न होना- यह सिद्धत्व का विरहकाल ही है।
जैन आगमों मे दो प्रकार के व्यक्तियों की चर्चा है- (१) संक्षेप-रुचि और (२) विस्तार-रुचि । कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो संक्षिप्त रूप में समझाई गई बात को समझ लेते हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो विस्तार से कहने पर ही समझ सकते हैं। संक्षेप में कही गई बात समझ पाना उनके लिए दुर्गम होता है। इस कारण आगमों में साधारण व्यक्तियों को समझाने के लिये एक ही तथ्य को भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से विस्तार से कहा जाता है। इसलिए इसे पुनरुक्ति-दोष नहीं माना जाता है।
इसी कारण ऊपर एक ही तथ्य का दो भिन्न रूपों में वर्णन हुआ है। १. प्रज्ञापना-सूत्र, पद-६, सूत्र-५६४, पृष्ठ : ४४४. २. प्रज्ञापना-सूत्र- पद-६, सूत्र- ६०६, पृष्ठ : ४५२.
२. प्रज्ञापना-सूत्र- पद- ५, सून ५५५, ८
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