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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
नमुद्धात उसे प्राप्त कहे गए
संज्ञा शब्द के कई अर्थ है- 'संज्ञायते अनेन इति संज्ञा'- जिससे पहचान होती है, उसे संज्ञा कहा वा जो नाम की सूचक है। यहाँ संज्ञा का अर्थ इससे भिन्न है। जिससे भूत, भविष्य और वर्तमान भावों के स्वभाव का विचार किया जाता है, उसे संज्ञा कहा जा सकता है। वह जिनमें होती है. वे संज्ञी या समनस्क कहे जाते हैं। _जिनमें यह मस्तिष्क-ज्ञान नहीं होता, वे असंज्ञी या अमनस्क कहे जाते हैं। जो संज्ञी और असंजी दोनों स्थितियों से अतीत होते हैं, वे नो-संज्ञी और नो-अंसजी कहे जाते हैं।
सेद्ध हो क होते
केवली और सिद्ध नो-संज्ञी और नो-असंज्ञी हैं। यद्यपि केवली का मनोद्रव्य से संबंध होता है किन्तु वे भत, भविष्य और वर्तमान के पदार्थ और भावों के स्वभाव की विचारणा या संज्ञा से रहित हैं। क्योंकि व केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के कारण साक्षात् जानते हैं।
सिद्धों के द्रव्य मन नहीं होता, इसलिए वे संज्ञी नहीं हैं, सर्वज्ञ होने के कारण असंज्ञी भी नहीं है।
सूर्यप्रज्ञप्ति-सूत्र में पंचपद वंदन
सूर्यप्रज्ञप्ति आगम वाङ्मय में सातवाँ उपांग है। इसमें प्रारंभ में भगवान् महावीर की स्तुति की गई है। तत्पश्चात् पंचपरमेष्ठि-वंदना है। उसमें यथाक्रम अरिहंत के बाद सिद्ध शब्द आया है। तत्पश्चात् क्रमश: आचार्य उपाध्याय और साधु पद हैं। इनके विशेषण के रूप में असुर, सुर, गरूड़, भुजंग-परिवंदि तथा गतक्लेश पद आए हैं।
कता। ग्यता योग्य जलिये
समीक्षण
व्याकरण के अनुसार अरिहंत- एक पद है। सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय इन तीनों शब्दों का समासयुक्त दूसरा पद है और सर्व साधु तीसरा पद है। ये विशेषण इन सब पर लागू होते हैं। ___ यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है- अरिहंत और सिद्धों के समकक्ष आचार्य, उपाध्याय और साधु को इन विशेषणों के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है ? अरिहंत एवं सिद्ध की भूमिका बहुत ऊँची है। आचार्य आदि तीनों को उनकी भूमिका प्राप्त करने में साधना के पथ पर और बहुत आगे बढ़ना होता है। जब वे त्रयोदश गुणस्थान प्राप्त करेंगे तब अरिहंतों के सदृश होंगे और जब चतुर्दश गुणस्थान प्राप्त करेंगे, तब सिद्धों के सदृश कहे जा सकेंगे।
संज्ञी
१. सूर्यप्रज्ञप्ति-सूत्र, प्रथम-प्राभृत, गाथा-१-४, पृष्ठ : ३.
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