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क्रम होते नादि से
लते हैं
त्थानादि
फैलाते काल के
सब बातें
ते हैं ?
न् भी
सौधर्म वान् से
खते हैं,
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केवली
पूर्वक
आगमों में सिद्धपद का विस्तार
समीक्षा
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उपर्युक्त विवेचन में मुख्यतया दो बातें हैं । पहली बात केवली और सिद्ध के जानने-देखने के विषय में है। इस संबंध में गौतम द्वारा जो-जो प्रश्न किए गए हैं, उनके समाधान में यही बतलाया गया है कि केवली और सिद्धों के जानने में कोई अंतर नहीं होता है क्योंकि ज्ञानावरणीय कर्म के संपूर्ण क्षय से सर्वज्ञत्व प्राप्त होता है । सर्वज्ञता में किसी प्रकार का तारतम्य नहीं होता। इसलिये केवली और सिद्ध दोनों का जानना समान है।
दूसरी बात केवली और सिद्ध में एक अंतर स्पष्ट है। केवली योगसहित होते हैं। इसलिये उत्थान, बल आदि उनमें विद्यमान रहते हैं। इसी कारण आँखें खोलने, बंद करने, उठने बैठने, सोने, रहने आदि के रूप में उनमें प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं ।
सिद्ध अयोग–योगरहित होते हैं । ऐसा होने से उनमें ये प्रवृत्तियाँ नहीं पाई जाती । केवली और सिद्ध में यही अंतर है। यह उस समय मिट जाता है, जब तेरहवें गुणस्थान में विद्यमान केवली सयोगावस्था को त्याग कर अयोगवस्था प्राप्त कर लेते हैं । तब वे भी सिद्ध हो जाते हैं । इसलिए फिर भेद का कोई प्रश्न ही नहीं रहता ।
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मोक्षसूचक स्वप्न
स्वप्नों का भी अपना एक विज्ञान है। वे सर्वथा निरर्थक नहीं होते। अनेक स्वप्न अभ्युदय, उन्नति और कल्याण के सूचक होते हैं, जबकि अनेक स्वप्न ऐसे होते हैं, जिनसे आगे आने वाली दुःखपूर्ण, अशुभ या संकटापन्न स्थिति का संकेत मिलता है। भारतीय विद्या के अंतर्गत स्वप्न-विज्ञान पर भी विद्वानों ने ग्रंथ रचना की है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र में चौदह स्वप्नों का उल्लेख किया गया है और उनका फल बतलाते हुए कहा गया है— चौदह स्वप्नों में दो स्वप्न ऐसे है, जिन्हें ये स्वप्न दिखाई देते हैं, वे मनुष्य दूसरे भव में सिद्ध होते हैं । इनके अतिरिक्त बाकी के बारह स्वप्नों में बताए गए पदार्थों को जो देखते हैं, वे उसी भव में। सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत होते हैं । सब दुःखों का अंत करते हैं।
सिद्धों के प्रथमत्व- अप्रथमत्व की चर्चा
व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में जीव, चौवीस दंडक और सिद्ध विषयक चर्चा के संदर्भ में एक प्रसंग आया है, जिसमें प्रथमत्व और अप्रथमत्व के संबंध में विवेचन है । उस प्रसंग का प्रारंभ इस प्रकार है
१. व्याख्याप्राप्ति सूत्र, शतक १६, उद्देशक- ६, सूत्र- २२-३५, पृष्ठ ५७७ ५७८.
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