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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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द्विपदावतार आख्यान । स्थानांग-सूत्र में द्विपदावतार के अंतर्गत लोकवर्ती द्रव्यों या पदार्थों को भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं में दो-दो के रूप में आख्यात किया है। वे दो-दो एक दूसरे की प्रतिकूलता युक्त हैं। उदाहरणर्थ-जीव और अजीव ये दो तत्त्व एक दूसरे के विरोधी तत्त्व के रूप में विद्यमान हैं। इसी क्रम में संसारावस्था में विद्यमान जीवों को संसार-समापन्न तथा असंसार-समापन्न इन दो शब्दों द्वारा अभिहित किया गया
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संसार-समापन्न वे जीव हैं, जो अपने द्वारा संचित कर्मों के फलस्वरूप संसार में विभिन्न योनियों में से किसी एक योनि में अवस्थित हैं। जैसा पहले एक प्रसंग में विवेचन किया गया है कि सांसारिक जीवों में जो भव्यसिद्धिक जीव होते हैं, वे साधना द्वारा संसार समापन्नता को समाप्त कर डालते हैं और वे असंसार-समापन्नता- सिद्धता या मुक्तता प्राप्त कर लेते हैं। ___ संसार-समापन्नता भव्यापेक्षया सान्त है तथा असंसार-समापन्नता अंतरहित है। सिद्धत्व पा लेने के पश्चात् कभी भी जीव वहाँ से च्युत नहीं होता। वह सदैव असंसार समापन्न- विमुक्त बना रहता है।
इसके आगे शाश्वत और अशाश्वत इस द्विपदी का उल्लेख है। यहाँ संसार-समापन्नता और असंसार-समापन्नता भी लागू होती है। असंसारावस्था या सिद्धावस्था शाश्वत है जबकि संसारावस्था अशाश्वत है, क्योंकि समग्र कर्म-क्षय द्वारा उसे मिटाया जा सकता है।'
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सिद्धगति की ओर क्रमश: प्रयाण
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प्रस्तुत आगम में एक स्थान पर साधक की पर्युपासना की फल-निष्पत्ति का छोटे-छोटे वाक्यों में | बहुत ही सुंदर वर्णन किया गया है। एक साधक की यात्रा धर्म-श्रवण से-धर्म-तत्त्वों को सुनने से प्रारंभ होती है और सिद्धत्व-प्राप्ति में उसका परिसमापन होता है। उसी का वहाँ प्रश्नोत्तर के रूप में चित्रण
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___ पहला प्रश्न है-- अहिंसारत साधक की, तथारूप संयमोद्यत श्रमण- माहण की पर्युपासना का क्या फल है?
__ इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि पर्युपासना का फल श्रवण है। इसका अभिप्राय यह है | कि धर्म की उपासना के पथ पर आरूढ़ साधक सबसे पहले अपने गुरुजनों से, ज्ञानियों से धर्मतत्त्व सुनता है।
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१. स्थानांग-सूत्र, स्थान-२, उद्देशक-१.
२. स्थानांग-सूत्र, स्थान-२, उद्देशक-१.
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