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सिद्ध पद और णमोक्कार-आराधना
, इसीलिये अनित्यवाद से सर्वथा
२. क्षेत्र-शुद्धि | क्षेत्र का तात्पर्य उस स्थान से है, जहाँ स्थित होकर जप किया जाए। वह स्थान ऐसा हो, जहाँ कोलाहल- शोर न होता हो। मच्छर, डाँस आदि पीडोत्पादक जंतु न हों। ऐसे उपद्रव, जो चित्त को क्षब्ध करते न हों। स्थान न अधिक ठंडा हो, न अधिक गर्म हो । स्थान एकांत और निर्जन हो तो और भी उत्तम है। घर का कोई एकांत भाग भी उपयोग में आ सकता है, जहाँ किसी प्रकार की बाधा न हों।
यद्यपि जप का मूल केन्द्र तो साधनाशील व्यक्ति स्वयं है किन्तु बाह्य स्थान की अनुकूलताप्रतिकलता का भी प्रभाव पड़ता है। प्रतिकूलता में जप बाधित होता है। अत: क्षेत्र-शृद्धि की भी परम आवश्यकता है। ३. समय-शुद्धि | वैसे तो जप की आराधना कभी भी की जा सकती है। जब मन में स्थिरता, तन्मयता एवं लगन हो तो जप गतिशील रह सकता है। फिर भी जप के लिये प्रात: काल, मध्याहुन-काल और सांयकाल का समय उपयुक्त माना गया है। कम से कम साधक पैंतालीस मिनट तक इस मंत्र का जप करे, यह वांछित है।
जप करते समय जागरूक रहे, मन में संसार की चिंता न लाये। प्राय: देखा जाता है कि सामायिक, जप आदि के समय मन में तरह-तरह के विचार और सांसारिक चिंतन आते रहते हैं। इसका कारण लोगों के चित्त का सांसारिक उपलब्धियों में अत्यधिक आसक्त रहना है।
ऐसे समय सामायिक, जप आदि यांत्रिक हो जाते हैं। जो आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रस्फुटन होना चाहिए, वह नहीं हो पाता, इसलिये जप करते समय निश्चिंतता, निराकुलता का अभ्यास परम आवश्यक
आंतरिक के मन में रहता है।
माया एवं पुद्धि' है। कि जप तक हो, जितना है। अत: के समय ह विकृत
है।
४. आसन-शुद्धि
जप करने के लिये किस प्रकार बैठा जाए, कौन से आसन में स्थित होकर जप किया जाए, आसन में काष्ठ, चटाई आदि किसका उपयोग किया जाए- इत्यादि विषयों में ज्ञानियों ने चिंतन किया है। आसन के लिये यह अनिवार्य नहीं है कि अमूक वस्तु का ही बिछाने के रूप में उपयोग किया जाए। भूमि पर बैठकर भी जप किया जा सकता है। काष्ठ, शिला या चटाई आदि पर बैठकर भी जप किया जा सकता है। अनुभवी लोगों का ऐसा कहना है कि सफेद ऊन का आसन जप के लिये उत्कृष्ट होता है।
देने का ना जाता
ऊन का पुद्गल-परमाणु-संचयन ऐसा होता है कि अन्य वस्तु का उस पर कम प्रभाव पड़ता है।
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