________________
सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
लेत हैं। संतुलित
अभाव सा हो जाए, ध्येय से भिन्न उपलब्धि प्रतीत न रहे, उस समय बह ध्यान समाधि के रूप में परिणत हो जाता है। धारणा, ध्यान और समाधि- ये आभ्यंतर योगाभ्यास या साधना के रूप हैं।
या है। । पूरक | अपने ट होते
ता है, मोत्कर्ष धक के
पर्यवगाहन
बहिर्मुखता से अंतर्मुखता में जाना योग है। योग का 'युज्' धातु के अनुसार जुड़ना अर्थ है। आत्मा का परमात्मा के साथ जुड़ना या आत्मा द्वारा परमात्म-भाव का अधिगम ही योग का अंतिम लक्ष्य है।
संबद्ध भ्यास
में भी नेर्जरा
णमोक्कार मंत्र भी इसी को लक्षित कर निरूपित हुआ है। नमन या वंदन के रूप में सबसे पहले वह साधक को विनय-भाव अपनाने की प्रेरणा प्रदान करता है। विनीत साधक ही साधना-पथ पर उत्तरोत्तर आगे बढ़ पाता है। विनय के बल पर ही साधु, मुनि-संघ में सुशोभित होता है। ज्ञान, साधना और विनय का साहचर्य पाकर साधक की आत्मा पवित्रतर बनती है।
योग चित्त के नियंत्रण से प्रांरभ होता है। णमोक्कार मंत्र की आराधना में भी मानसिक स्थिरता की बहुत आवश्यकता है। यदि चित्त में सांसारिक वृत्तियाँ उद्भव पाती रहे तो नवकार मंत्र में मन नहीं रमता। जिस प्रकार योग में आसनों द्वारा शरीर को सुव्यवस्थित और सुनियंत्रित किया जाता है, उसी प्रकार णमोक्कार की आराधना में काय की स्थिरता आवश्यक है।
आसनों के साथ-साथ कायोत्सर्ग आदि द्वारा शरीर की स्थिरता का और उसके प्रति रहे हुए ममत्व के त्याग का अभ्यास सिद्ध होता है। वह साधक को प्रगति-पथ पर अग्रसर करता जाता है।
मन, वचन और शरीर की सभी प्रवृत्तियाँ जब आत्मोन्मुखी बन जाती है, ध्येय, ध्याता और ध्यान की त्रिवेणी एक विशाल प्रवाह का रूप धारण कर लेती है तब समाधि, जो आध्यात्मिक शांति का पर्याय है, स्वायत्त हो जाती है। कषाय-जनित अप्रशस्त भावों का वहाँ नाश हो जाता है। स णमोक्कार मंत्र में अरिहंत, ध्यान का विषय या ध्येय है। साधक ध्याता है। वह अपने मन को अरिहंत भगवान् पर एकाग्न करने का जो प्रयत्न करता है, वह ध्यान है। जब साधक उसमें तन्मय हो जाता है तब उसका मन शुद्धात्म-भाव में इतना लीन हो जाता है कि उसे ध्याता, ध्यान और ध्येय के भेद की प्रतीति ही नहीं रहती। तन्मयता या तल्लीनता इतना उत्कर्ष प्राप्त कर लेती है कि ये तीनों एकाकार हो जाते हैं। णमोक्कार मंत्र की आराधना द्वारा ऐसी स्थिति प्राप्त की जा सकती है। णमोक्कार महामंत्र के पहले पद के प्रारंभ में जो 'अरि' शब्द जुड़ा है, उसका एक विशेष आशय है। वीतराग देव ने राग-द्वेष आदि को. जो आत्मा के शत्रु हैं, जीत लिया है। उसी प्रकार सांसारिक मोह,
। का, मुद्यत
वस्तु
वाह
१. योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र-३.