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णमो सिद्धार्ण पद : समीक्षात्मक परिशीलन ।
हरइ दुहं कुणइ सुहं, जणइ जसं सोसए भव समुह ।
इहलोय परलोइय, सुहाण मूलं णमुक्कारो।। णमोक्कार दुःख का हरण करता है। सुख का निष्पादन करता है। यश का उत्पादन करता है तथा भवसागर का शोषण करता है। इस लोक और परलोक के सुखों का मूल भी णमोक्कार है।
इस गाथा में णमोक्कार मंत्र के अत्यधिक दुःखनाशक और सुखप्रद गुण का बड़े प्रबल शब्दों में प्रतिपादन है। यह धर्म की आराधना का अनन्य अंग है। पुण्योत्पादक है। इसका सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि संसार-सागर में भटकते हुए, क्लेश पाते हुए जीव इसका संबल पाकर लौकिक एवं पारलौकिक सभी सुखों को प्राप्त कर लेते हैं। जब दोनों ही प्रकार के सुख इससे सिद्ध हो जाते हैं, तब मानव के लिये इससे विशिष्ट और क्या वस्तु हो सकती है?
शास्त्रों में आचार्यों ने, विद्वानों और लेखकों ने स्थान-स्थान पर णमोक्कार मंत्र की महिमा का आख्यान किया है। वह केवल श्रद्धावश किया गया वर्णन नहीं है, और न उसमें कोई अतिशयोक्ति ही है। तत्त्वद्रष्टाओं के दृष्टिकोण के अनुसार वह वास्तविकता है। आज भी समर्पित भाव से जो इस महामंत्र की शरण लेते हैं, विधिपूर्वक उसकी आराधना करते हैं, उनको अपनी योग्यतानुसार कुछ न कुछ स्वानुभव हुए बिना नहीं रहता। वे ज्यों-ज्यों अपनी योग्यता को बढ़ाते हैं, स्वानुभूति बढ़ती जाती है।
णमोक्कार मंत्र का स्मरण दु:ख का हरण करता है और सुख उत्पन्न करता है', इत्यादि कहे जाने के पीछे एक रहस्य है, जो स्थिरतापूर्वक चिंतन करने से समझा जाता है।
हमारे चित्त में सत्त्व, रजस्, तमस, नामक तीन वृत्तियाँ विद्यमान हैं। उनमें से जब चित्त तामसिक वृत्ति से आवृत्त होता, तब काम, क्रोध आदि क्लिष्ट, पापपूर्ण वृत्तियाँ उत्पन्न होती है, जो दुःख का मुख्य हेतु है।
चित्त का यह धर्म है, स्वभाव है कि जब वह जिस भाव के वश में होता है, तब वह उसमें तदाकार हो जाता है। जब उस पर क्रोध आदि क्लिष्ट भावों का प्रभाव होता है, तब वह तद्रूप बन जाता है। उसमें उत्पन्न होने वाली क्लिष्ट वृत्तियाँ आत्मा में तरह-तरह के संक्लेश- दु:ख उत्पन्न करती हैं- यह अनुभव सिद्ध है।
जब यही चित्तवृत्ति सात्त्विक आदि भावों से परिपूर्ण होती है तो पंच-परमेष्ठियों का उत्तम आलंबन प्राप्त करने में लीन हो जाती है। तब वे दु:खकारक क्लिष्ट वृत्तियाँ सत्त्वप्रधान वृत्तियों के
१. (क) सांख्यकारिका, श्लोक-१३, पृष्ठ : १३.. (ख) सर्वदर्शन संग्रह, सांख्यदर्शन, गद्य-२. पृष्ठ : ६१८.
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