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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
निःसृत होता है। उसके उतफुरण, उद्योतन और उहवर्धन हेतु तंतुवाच तालवाद्य आदि अपेक्षित होते हैं, किन्तु वे संगीत में संप्रविष्ट नहीं होते, एकाकार नहीं होते। अत: चित्रकला की अपेक्षा संगीत में सूक्ष्मता है। अधिकतम स्थूल निरपेक्षिता है।
णमोक्कार मंत्र संगीतकला को भी प्रश्रय देता है किंतु विनोद या मनोरंजन हेतु वैसा नहीं करता । | संगीत के साथ वह आत्मरंजन का भाव जोड़ता है, जिससे अध्यात्म का गांभीर्य, संगीत के माधुर्य के साथ मिलकर साधक में अभिनव स्फूर्ति का संचार करता है। यही कारण है कि बड़े-बड़े आचार्यों, संतों और भक्तों ने ऐसे गीतों की रचना की, जिनकी लयात्मकता के साथ परमात्म-तत्त्व के उदात्तभाव | सन्निविष्ट हैं । वहाँ संगीत साधक की साधना में एक संबल बन जाता है ।
सूक्ष्मत्ता में अंतिम कला काव्यकला है। काव्यकला में तंतुवाद्य, तालवाद्य आदि बाह्य सामग्री का कोई योग नहीं रहता, केवल शब्द ही उसका आधार होता है । जब शब्द और अर्थ में विलक्षण लालित्य, सौंदर्य का समावेश होता है तब वह काव्य के रूप में परिणत हो जाता है।
आचार्य भामह ने काव्य की परिभाषा करते हुए लिखा है
शब्दार्थी सहिती काव्यं, गद्यं पद्मं च तद्विधा ।
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'सहित शब्दार्थ' को काव्य कहा जाता है । सहित, शब्द और अर्थ का सहभाव है । जो अर्थ व्यक्त किया जाए, शब्द का ठीक उसके अनुरूप होना वांछनीय है। वैसा होने से उसमें एक प्रकार का सौंदर्य आ जाता है । कुछ विद्वान् सहित का अर्थ हित, श्रेयस् या कल्याण सहित भी करते हैं । अर्थात् वे शब्द और अर्थ काव्य हैं, जिनमें मानव का हित या श्रेयस् व्याप्त हो ।
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विश्वनाथ कविराज ने काव्य का लक्षण इस प्रकार बतलाया है
वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।
रस जिसकी आत्मा हो, या जिसका सार रूप में जीवनाधायक तत्त्व हो, उसे काव्य कहा जाता है । सरसता में ही काव्य की प्राणवत्ता है ।
पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य की परिभाषा निम्नांकित शब्दों में की है
रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम् ।
जो शब्द रमणीय या सुंदर अर्थ का प्रतिपादन करता है, उसे काव्य कहा जाता है।
२. साहित्य दर्पण, प्रकाश - १, सूत्र ३.
१. काव्यालंकार, श्लोक-१६.
३. रसगंगाधर, प्रथम आनन (काव्य-लक्षण).
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