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सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
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विभिन्न भाव अपने-अपने निमित्तों को प्राप्त कर शांत रस में ही प्रवृत्त होते हैं। निमित्तों के न रहने पर वे शांत रस में ही उपलीन हो जाते हैं। वास्तव में शांत रस ही एक मात्र रस है।
जिस प्रकार सूर्य के श्वेत ज्योतिर्मय वर्ण में सातों ही वर्ण समाहित है, उसी प्रकार तृष्णा-क्षयरूप-रसमूलक स्थायी-भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी-भाव आदि शांतरस में परिणत हो जाते हैं। अनुचिंतन
मानव के मन में प्रेम, करुणा, उत्साह, भय, आश्चर्य, जगप्सा, निर्वेद आदि सहज वत्तियाँ होती हैं, उन्हें स्थायी-भाव कहा जाता है। काव्य में वे ही रसों के रूप में परिणति प्राप्त करते हैं। 'रस्यते इति रस:- जिससे सरसता का, आनंद का अनुभव हो, उसे रस कहा जाता है।
जब ये स्थायी भाव महाकाव्यों, खंडकाव्यों, मुक्तक-काव्यों, नाटकों, गद्य तथा काव्यों में रस रूप में परिणत होकर अभिव्यक्त होते हैं, तब वे पाठकों, श्रोताओं और प्रेक्षकों को आनंद विभोर कर देते हैं, इसलिये इनका महत्त्व हैं।
णमोक्कार का मुख्य विषय अध्यात्म है। अध्यात्म का संबंध निर्वेद, वैराग्य, तृष्णा-क्षय या त्याग से है। संसारावस्था और वैराग्यावस्था- ये दो भिन्न दिशाएँ हैं किन्तु संसारावस्था को छोड़कर वैराग्यावस्था में आना होता है।
वैराग्य अवस्था निर्वेदमय है। उसमें आध्यात्मिक शांति की अनुभूति होती है । इसलिये वहाँ शांत रस का स्रोत प्रवहणशील होता है। णमोक्कार मंत्र में वह ओतप्रोत है किन्तु वे रस, जो सांसारिक जीवन से संबंधित हैं, णमोक्कार के संपर्क में आते हैं तो उनका भाव परिवर्तित हो जाता है। - सांसारिक प्रेम आध्यात्मिक प्रेम में बदल जाता है। सांसारिक पराक्रम और शौर्य, राग-द्वेष आदि आत्म-शत्रुओं को जीतने में लग जाते हैं। संसार के पापपूर्ण स्वरूप से भीति उत्पन्न होती है, उससे घृणा होती है। आत्म-स्वाभाव को भूलकर जो लोग भवचक्र में भ्रांत पड़े हैं, उन्हें देखकर आश्चर्य होता है। करुणा होती है।
इस प्रकार करूण-रस, वीर-रस, वीभत्स-रस, भयानक-रस, अद्भुत-रस आदि सभी रस अध्यात्म-भाव का आलंबन लेकर शांत-रस में परिणत हो जाते हैं। उन्हें णमोक्कार मंत्र से संबल, संपोषण और संवर्धन प्राप्त होता है।
इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से सभी रसों का णमोक्कार मंत्र में समावेश हो जाता है।
| १. काव्यानुशासन, पृष्ठ : १३२.
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HASHA