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सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
। विकल्प
का सूचक करता है, हा जाता का प्रयोग
का बहुत बड़ा महत्त्व है। कहा है
आत्मा नदी संयम-पुण्य-तीर्था, सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः ।
तत्राभिषेकं कुरु शुद्धबुद्धे ! न बारिणा शुध्यति चान्तरात्मा ।। अर्थात आत्मा नदी है। संयम पवित्र तीर्थ है। उस आत्मारूपी नदी में स्नान करो। जल से आंतरिक शुद्धि नहीं होती।
आंतरिक शुद्धि पर सभी धर्मों में बड़ा जोर दिया गया है। संतोष का जीवन में बहुत महत्त्व है। तप से आत्मा निर्मल होती है। स्वाध्याय से सद्ज्ञान प्राप्त होता है। जीवन में पवित्रता का संचार होता है तथा परमात्मोपासना से साधक परमात्म-भाव की ओर या आत्मा की शुद्धावस्था की दिशा में प्रगतिशील होता है। ये पाँचों नियम ऐसे हैं, जो प्रत्येक साधक के लिए कल्याणकारी हैं।
णों द्वारा
। अपवाद
रूप में अम नहीं न पालन जो साधक तीवन को इ भावना गा, वैसा
आसन
योग का तीसरा अंग आसन है। पूर्व प्रसंग में आसन के विषय में विस्तार से विवेचन किया है। सामायिक, स्वाध्याय तथा ध्यान आदि की दृष्टि से समीचीन रूप में बैठने का बहुत महत्त्व है। पंच महाव्रती साधक महाव्रतों के अनुसार णमोक्कार मंत्र के साथ-साथ कर्म-क्षय के हेतु- तपश्चरण के रूपों में अनेक प्रकार से प्रयत्नशील रहता है। जिसके लिये आसन-शुद्धि आवश्यक है।
स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 'आसन-प्राणायाम-मुद्रा-बंध' नामक पुस्तक में ध्यान के लिए निम्नांकित आसनों को उपयोगी बतलाया है- “१. पद्मासन, २. सिद्धासन (पुरुषों के लिए) ३. सिद्धयोनि आसन (महिलाओं के लिए), ४. स्वस्तिकासन नए अभ्यासियों के लिए ध्यान के सरल आसन हैं- १. सुखासन, २. अर्ध पद्मासन"१
पुनश्च- “आसन, काय-सिद्धि का एक अंग है। समता की प्राप्ति के लिए काय-सिद्धि और काय-सिद्धि के लिए आसन के प्रयोग किए जाते हैं।"
स्थान निर्विघ्न हो, एकांत हो, ऊन आदि का शुद्ध आसन हो । बैठने में सुखमय आसन का प्रयोग |किया जाए। कठोर आसनों का प्रयोग न किया जाए, जिनसे देह को अत्यधिक कष्ट होता है। ऐसा होने से मन स्वाध्याय, ध्यान आदि से हटकर देह में चला जाता है।
वती एवं व्रतों की एक नया अग्रसर
पासना
डा जाए पवित्रता
प्राणायाम
जीवन के साथ प्राण-वायु का बड़ा गहरा संबंध है। प्राणवायु पर चित्त को स्थिर कर विशेष
१. आसन-प्रणायाम-मुद्रा-बंध, पृष्ठ : ६१.
२. अपना दर्पण, अपना बिम्ब, पृष्ठ : ५५.
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