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णमो सिद्धाण पद: समीक्षात्मक परिशीलन
जानो। स्व-समय का अर्थ आत्मा का शुद्ध स्वरूप है। पर-समय का अर्थ उसकी विभावावस्था है दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र जीव का स्वभाव है। कर्म-पुद्गलों से बद्ध अवस्था पर-भाव है। जब तक आत्मा पर-भाव में विद्यमान रहती है, तब तक वह संसारावस्था में, सुख-दुःख में अवस्थित होती है।
निश्चयनयानुरूप सिद्धान्त के अनुसार आत्मा लोक में सुंदर या उत्तम है। वहाँ दूसरे के साथ बंधने का प्रसंग नहीं बनता। अर्थात् शुद्ध स्वरूप स्थित आत्मा के साथ कर्मों का बंध नहीं होता।
शुद्ध आत्मा का चिंतन इस प्रकार अग्रसर होता है- “मैं शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ, कोई भी अन्य पदार्थ परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है।"२
जीव शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है, अव्यक्त है- इद्रिय गोचर नहीं है, उसका गुण चेतना है। वह निर्दिष्ट लिंग, चिहन, संस्थान या आकार से परे है। ___ ज्ञानी पुरुष विचार करता है- “निश्चय दृष्टि से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममत्वरहित हूँ, ज्ञान-दर्शन से पूर्ण हूँ, अपने स्वभाव में स्थित होता हुआ, चैतन्य अनुभाव में लीन होता हुआ, क्रोध आदि सभी आसवों का- कर्म प्रवाहों का, मैं नाश करता हूँ।"
जीव-अजीव पदार्थों का श्रद्धान् सम्यक्त्व है, उनका अधिगम ज्ञान है। रागादि का परिहरण या त्याग चारित्र है। वही मोक्ष का मार्ग है।
जिस जीव में, लेशमात्र भी राग आदि विद्यमान हैं, वह जीव समस्त आगमों का ज्ञान रखता हुआ भी आत्मा को नहीं जानता अर्थात् आत्मा के शुद्ध स्वरूप का उसको बोध नहीं है। जो आत्मा को नहीं जानता, वह अनात्मा को भी नहीं जानता । आत्मा के अतिरिक्त अजीव पदार्थ को नहीं जानता। उनके स्वरूप का उसको यथार्थ बोध नहीं होता, वह सम्यक दृष्टि कैसे हो सकता है।
अनुचिंतन
निश्चय-दृष्टि से जब चिंतन किया जाता है, तब आत्मा ही वह परम तत्त्व है, जो ध्येय, उपास्य और आराध्य है। 'ध्यांत योग्यं ध्येयं-- के अनुसार ध्येय का अर्थ ध्यान करने योग्य या ध्यान का विषय है। 'उपासितुं योग्य उपास्यम्- जो उपासना करने के योग्य होता है, उसे उपास्य कहा जाता है। उपासना का अभिधेय अर्थ--- समीप बैठना है। उसका लक्ष्यार्थ भावात्मक दृष्टि से गुरु का अथवा पूज्य का सामीप्य प्राप्त करना है, उनके मार्गदर्शन से ध्येय के शुद्ध स्वरूप के समीप पहुँचना है,
१. समयसार, गाथा-३-४ ३. समयसार, गाथा- ७३, ५. समयसार, गाथा- २०१,
२. समयसार, गाथा-३८. ४. समयसार, गाथा- १५५,
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