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सिन्न पद और णमोक्कार-आराधना।
जिससे वह ध्वनि अधिक स्पष्टता हेतु अग्रसर होती हुई ध्वनियंत्र (Vocal Chord) द्वारा वागिंद्रिय तक पहुँचती है। जहाँ कुछ विशदता प्राप्त करती है, उसे 'मध्यमा वाणी' कहा जाता है। जब वह वाणी मखवर्ती कंठ, ओष्ठ आदि उच्चारण-स्थानों का सहयोग पाकर शब्द रूप में प्रगट होती है, तब उसे 'वैखरी' कहा जाता है। जो भी हम बोलते हैं, वह वैखरी-वाणी का विषय है।
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णमोक्कार मंत्र की उत्पत्ति
णमोक्कार मंत्र शब्दात्मक है। शब्द द्रव्य-रूप में नित्य है तथा पर्याय-रूप में अनित्य है। अत: णमोक्कार मंत्र भी द्रव्य-रूप में नित्य माना जाता है और पर्याय-रूप में अनित्य माना जाता है। द्रव्यभाषा पुद्गलात्मक है। पुद्गल के पर्याय अनित्य हैं, इसलिये भाषा के पुद्गल भी अनित्य हैं किंतु भावभाषा, जो आत्मा का क्षयोपशमात्मक रूप है, वह आत्म-द्रव्य की तरह नित्य है।
श्री णमोक्कार मंत्र द्रव्य एवं भाव दोनों दष्टियों से शाश्वत है अथवा शब्द और अर्थ की अपेक्षा से नित्य है। जैन शास्त्रकार णमोक्कार मंत्र को शाश्वत या अनुत्पन्न मानते हैं। वह सर्वसंग्राही नैगमनय की अपेक्षा से है। विशेषग्राही नैगम-ऋजुसूत्र तथा शब्द आदि नयों की अपेक्षा से णमोक्कार मंत्र उत्पन्न भी माना जाता है। इस तथ्य को अधिक विशद रूप में स्पष्टतया समझने हेतु नैगम आदि न्यों के स्वरूप को संक्षेप में समझना अति आवश्यक है।'
समीक्षा
णमोक्कार मंत्र का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो उसके शब्दात्मक, अर्थात्मक अथवा द्रव्यात्मक, भावात्मक दो रूप हैं।
जैन दर्शन के अनुसार श्रुत की- ज्ञान की परंपरा अर्थरूप में, भावरूप में, या तत्त्वरूप में अनदि है, नित्य है। अपने-अपने युगों में तीर्थंकर उसी सत्य को अपने शब्दों द्वारा व्याख्यात करते हैं, जो पूर्ववर्ती परंपरा के माध्यम से अस्तित्व के रूप में विद्यमान है।
णमोक्कार मंत्र श्रुत का ही प्रतीक है। इसलिये उसकी आदि नहीं है। जिसकी आदि नहीं होतं, उसकी उत्पत्ति भी नहीं होती, इसलिये वह अनुत्पन्न है, शाश्वत है, नित्य है। उसका शब्दात्मक रूप द्रव्य-दृष्टि से नित्य है तथा पर्याय-दृष्टि से अनित्य है। जैसे एक व्यक्ति किसी शब्द का उच्चारण करता है, उसके मुँह से शब्द निकलता है, आकाश में विलीन हो जाता है। जो विलीन होता है, वह शब्द का पर्याय या अवस्था है।
अर्थ और भावरूप में तो वह नित्य है ही। जैन दर्शन अनेकांत द्वारा नित्य और अनित्य के
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१. (क) त्रैलोक्य दीपक, पृष्ठ : ४४, ४५
(ख) नमस्कार-महामंत्र (श्री भद्रंकरविजयजी), पृष्ठ : ९५-९६
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