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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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हैं, जिन से उसे आगे बढ़ने में कष्ट होता है। वह किसी तरह उस नगर में पहुँच तो जाता है, किंतु वहाँ पहुँचकर बहुत खिन्न हो जाता है। यदि वह अच्छे मार्ग का सहारा लेकर चलता तो चलने में ये बाधाएं और कठिनाइयाँ नहीं आती। | णमोक्कार-मंत्र की जपाराधना में समुचित रीति का, मार्ग का अवलंबन लेना आवश्यक है। विद्वानों ने बाह्य-आभ्यंतर-शुद्धि को ध्यान में रखते हुए स्थान-चयन, आसन-चयन, समय-चयन | इत्यादि के संबंध में जो निर्देश दिये हैं, वे अत्यंत उपयोगी हैं। .
जपाराधना का प्रथमत: मुख्य आधार तो अंत:करण है। द्वितीय, मंत्र का उच्चारण है। मंत्रोच्चारण की दो विधियाँ बतलाई गई हैं। वे भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। एक उच्चारण वह है, जिसमें केवल मानसिक स्मरण होता है। मन द्वारा मंत्राक्षरों का आवर्तन या सूक्ष्मोच्चारण होता है। दूसरा, स्पष्ट उच्चारण है, जिसमें साफ-साफ सुनाई देता है।
आंतरिक उच्चारण का अत्यधिक महत्त्व है। आंतरिक उच्चारण से मन अपेक्षाकृत अधिक स्थिर होता है। वह मंत्राक्षरों से संयुक्त रहता है। इससे उत्तरोत्तर मंत्राधिष्ठित तत्त्वों में उसकी तन्मयता होती है। वैसा होने पर जप के साथ-साथ ध्यान भी स्वाभाविक रूप में सधने लगता है।
जहाँ मंत्र का उच्चारण स्पष्ट सुनाई पड़ता है, वहाँ मन मंत्रों को वागिन्द्रिय तक प्रेषित करता है। वागिंद्रिय उसे वैखरी-वाणी के रूप में उच्चारित करती है। उस समय मन के साथ उसका उतना गहरा सामीप्यपूर्ण संबंध नहीं रह पाता, जितना मौन जप में रहता है। मौन शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। 'मुनेर्भावो मौनम्'- इस व्युत्पत्ति के अनुसार मौन का अभिप्राय मुनिभाव या मुनित्व है। मौन
। मुनित्व-भाव परिपुष्ट होता है। इसलिये ज्ञानी कहते है कि वाणी का प्रयोग कम से कम करें। उसके प्रयोग में ऊर्जा का जो व्यय होता है, उसको बचाएं। उस ऊर्जा का उपयोग विधायक रूप में आत्म-तत्त्व के विकास में करें।
यह जप की उच्च भूमिका है। यह एकाएक सिद्ध नहीं होती। इसलिये सामान्य साधक उच्चारण के साथ जप की साधना करता है। जैसा विधिक्रम में सूचित किया गया है कि उच्चारण अत्यंत शुद्ध होना चाहिए। गुरुजनों से साधक को मंत्र-दीक्षा और मंत्र-शिक्षा लेनी चाहिए। गुरु के मुख से प्राप्त मंत्र दिव्य होता है, क्योंकि गुरु के जीवन की पवित्रता और महत्ता उसके साथ जुड़ जाती है। सभी | धर्मों में गुरु की महत्ता है। कहा गया है :
गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु: साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः ।।'
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१. श्री अर्हद्गीता, पृष्ठ : १९
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