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किंतु जने में
कहै ।
-चयन
है ।
जसमें
दूसरा,
स्थिर
मयता
करता
उतना
चपूर्ण
मौन
कम
नायक
चारण
शुद्ध
प्राप्त
सभी
सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
इस श्लोक से स्पष्ट है कि गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरु-पूजा परमात्म पूजा है, तभी तो संत कबीर कहते है :
गुरु गोबिन्द दोनों खड़े, काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ।।
।
इस दोहे में कबीर ने बड़े मर्म की बात बताई है। परमात्मा और गुरु दोनों को अपने सम्मुख | देखने की परिकल्पना कर संत कबीर कहते हैं- मेरे लिये तो ये दोनों महान् हैं परंतु किसको प्रथम प्रणाम करूँ ? मेरे लिये परमात्मा से भी बढ़कर गुरु का स्थान है, पहले वे ही प्रणाम योग्य हैं, क्योंकि उन्होंने ही मुझे परमात्म दर्शन का मार्ग बतलाया ।
इसलिए णमोक्कार मंत्र सद्गुरु से श्रवण कर स्वायत किया जाए, यह वांछित है । अन्य सभी शुद्धियों का पालन करते हुए साधक को सबसे पहले अपनी मानसिक स्थिरता पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए । जप की गति में अनवरतता रहनी चाहिये । यदि साधक विधिपूर्वक दीर्घकाल तक जप का अभ्यास करता रहे तो फिर जप आत्मा का स्वभाव बन जाता है और योग की भाषा में कहे तो अजपा जाप की स्थिति निष्पन्न होती है।
णमोक्कार महामंत्र से ज्ञायक भाव का उदय
I
आत्मा ज्ञाता है, द्रष्टा है, यह वास्तविकता है । आत्मा द्वारा अपने को परभाव का कर्ता मानना | अज्ञानजनित मोहावस्था है। णमोक्कार मंत्र आत्मा के शातृत्त्व-भाव या ज्ञायक भाव का दिशादर्शन | देता है । ज्ञायक भाव आत्मा का स्वभाव है, राग-द्वेष आदि विभाव हैं। सांसारिक आत्माएं अधिकांशतः विभावोन्मुख होती हैं । णमोक्कार मंत्र उन्हें स्वभावोन्मुख बनाता है । 'अर्हम्' वर्णमाला का एवं शब्दब्रह्म का संक्षिप्त स्वरूप है । तत्त्वतः शब्दब्रह्म, परब्रह्म का वाचक है। परब्रह्म शुद्ध-ज्ञान-स्वरूप है, क्योंकि उसमें विशुद्ध ज्ञान के अतिरिक्त दूसरे कोई भाव समाविष्ट नहीं है। वही शुद्ध | परब्रह्म स्वरूप ही उपास्य या उपासना योग्य है, पूज्य या पूजा- योग्य हैं, वही आराध्य या आराधनायोग्य है । उसके अतिरिक्त अन्य स्वरूप उपासना - योग्य, पूजा - योग्य अथवा आराधना - योग्य नहीं हैंयह जैन सिद्धांत है ।
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है
उपास्य पूज्य या आराध्य भाव का हेतु वीतरागत्व आदि गुण हैं। वीतरागता, सर्वज्ञता के साथ व्याप्त है। अर्थात् जहाँ वीतरागता होती है, वहाँ सर्वज्ञता फलित होती है, अत: वीतराग एवं सर्वज्ञ | जैसे सर्व दोष - विवर्जित ज्ञान - स्वरूप की उपासना ही परम पद की प्राप्ति का बीज है । णमोक्कार महामंत्र उसका अनन्य साधन है वह शब्दवा है, उसी का सिद्धिमूलक रूपांतर परब्रह्म है। णमोक्कार रूप शब्दब्रह्म, आराधना द्वारा परब्रह्म के रूप में परिणत हो जाता है क्योंकि उससे ज्ञायक
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