________________
सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
मग्न कर्म
। को अपने । रूप है। -जप होता वल ओष्ठ -आत्माओं व्य है कि है। अत: ध्यान और
निश्चित नहीं होते, तब तक अपने स्वरूप को प्राप्त करने का मार्ग मिलना संभव नहीं है। आदर्श-शुद्ध, सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा या परमात्मा ही हो सकता है। कोई भी विकार-ग्रस्त प्राणी विकार-रहित आदर्शों को अपने समक्ष रखकर अपने भीतर उत्साह, स्फूर्ति तथा दृढ़ संकल्प उत्पन्न कर सकता है। चिदानंदमय, प्रशांत परमात्म-स्वरूप को अपने हृदय-स्थल में स्थापित करने से विकार शांत होते हैं। वीतराग, अलौकिक, दिव्यज्ञानधर, अनुपम, दिव्य आनंदमय, अनंत सामर्थ्ययुक्त आत्माओं का आदर्श सामने रखने से मिथ्या बुद्धि नष्ट होती है तथा दष्टिकोण में परिष्कार और परिमार्जन होता है। राग-द्वेषात्मक भाव हृदय से नि:सृत हो जाते हैं । अर्थात् अध्यात्म-चेतना विकसित होने लगती है।
णमोक्कार मंत्र ऐसे ही आदर्श रूप को लिये हुए हैं। वह उत्कृष्टतम मंगल-वाक्य है। उसमें द्वादशांग-वाणी का सारभूत परम दिव्यात्म-स्वरूप पंच परमेष्ठियों का पावन नाम निरूपित है, इसके श्रवण, स्मरण, चिंतन-मनन से कोई भी व्यक्ति राग-द्वेषात्मक विकारों को अपने से पृथक कर सकता है, विकारों को मिटाने के लिये पंच परमेष्ठी के आदर्श से उत्तम और कोई आदर्श विश्व में विद्यमान नहीं है। यह शक्ति का अमोघ उपाय है।
वासनाओं में इधर-उधर भटकने वाला मन, इस मंत्र के उच्चारण और जप द्वारा शुद्ध और स्वस्थ बन सकता है। इस मंत्र में जिस भावना का प्रतिपादन हुआ है, वह प्रारंभिक साधक से लेकर उच्चातिउच्च श्रेणी के साधक तक के लिये शांतिप्रद और श्रेयस्कर है। ____ भारतीय दार्शनिकों का ही नहीं, संसार के सभी दार्शनिकों का यह मंतव्य है कि जब तक व्यक्ति में आस्तिकता का भाव नहीं होता, मंगल-वाक्य के प्रति श्रद्धा नहीं होती, तब तक उसका मन स्थिर नहीं हो सकता।
, जिसकी किया जा स्वरूप का होता है।
परिणाम -तरंगों से मा-वाणी अपूर्वकरण र्शन होता पर आगे का लंघन
जिस व्यक्ति के मन में आस्तिकता या श्रद्धा होती है, वह अपने आराध्य महापुरूषों की आराधना द्वारा शांति प्राप्त कर सकता है। दृढ़ आस्था के साथ सर्व-दोष-विवर्जित आत्माओं का आदर्श अपने सामने रखना तथा राग-द्वेष जीतने वाली आत्मा के समान अपने को बनाने का प्रयत्न करना, प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है। | जो शांति चाहता है, राग-द्वेष से विरत होना चाहता है तथा अपने हृदय को शुद्ध, निर्मल और सबल बनाना चाहता है, उसे अपने समक्ष कोई आदर्श अवश्य रखना होगा तथा उस आदर्श को निरूपित करने वाले मंगल-वाक्य का चिंतन-मनन करना होगा। अपने समक्ष आदर्श रखने का यह आशय नहीं है कि अपने को हीन तथा आदर्श को उच्च मानकर उपासना, आराधना की जाए। वास्तव में इसका अभिप्राय यह है कि शुद्ध और उच्च आदर्शों को सामने रखकर उन्हीं के सदश शुद्ध एवं
चदानंदय आदर्श
१. समरो मंत्र णवकार, पृष्ठ : २३.
64