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कर्म
वरूप
की
करने
उदय, को
बंध
है।
द्वारा
मान
त्मा
तथा
पात्र
उदित
उनके
ये
सीन्य
हैं,
चीन
षत:
हवश
संभव
सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
अस्तु, जो तीनों लोकों के लिए नमस्करणीय हैं, वे इसी भाव का स्पर्श कर ऐसे बने हैं । वस्तुत: नमस्करणीय को नमस्कार करने से सच्चा नमस्कार-भाव, विनय भाव अपने में अवतरित होता है ।
णमोक्कार की अमोघ शक्ति :
विलक्षणता
णमोक्कार मंत्र कभी निष्फल नहीं जाता। उसका निष्फल होना मानो समग्र प्रकृति के कार्य तंत्र | का निष्क्रिय और निष्फल होने के समान है। जिस प्रकार यह प्रकृति-जगत् अपने नियमों में बंधा हुआ सर्वथा कार्यशील रहता है, उसी प्रकार णमोक्कार का भी अमोघ प्रभाव एवं शक्ति है। जिस प्रकार ब्रह्मांड में विज्ञान के सूक्ष्म सिद्धांत अविरत रूप में कार्य करते हैं, उसी प्रकार णमोक्कार मंत्र स्थिरता | पूर्वक स्मरण करने से उत्कृष्ट मंगल कार्य सिद्ध करता है।
अनंत काल का शाश्वत प्रवाह जैसे एक क्षण भी अवरूद्ध नहीं होता, उसी प्रकार णमोक्कार मंत्र न कभी निष्फल हुआ है और न कभी निष्फल होगा। णमोक्कार मंत्र का भावपूर्वक उच्चारण करने से एक ही पद में मानव तन्मय और तदाकार हो जाता है। प्रथम पद का उच्चारण करते समय समवसरण में भगवान्, सर्वज्ञदेव की वाणी में दूसरे पद का स्मरण करते समय सिद्धशिला पर आनंदमय एकांत स्थान में विद्यमान सिद्ध भगवंत में, तीसरे पद का स्मरण करते समय पंचाचार रूपी सूक्ष्म कुसुमों की सुगंध से भरे हुए नंदनवन में चौथे पद का स्मरण करते समय ब्रह्मांड विज्ञान के सिंद्धांतों के समुद्र में तथा पांचवें पद का स्मरण करते समय पाँच महाव्रतों के आंतरिक सामर्थ्य के समान महामेरु पर्वत पर मानो पहुँच गये हों ऐसा प्रतीत होता है।
णमोक्कार मंत्र से अल्प पाप ही नहीं किंतु समग्र पापों का ऐकांतिक या निश्चय रूप में, | आत्यंतिक या समग्र रूप में क्षय होने की अनुभूति होती है तथा उत्कृष्ट मंगल रूपी गंगोत्री से निकलते हुए गंगा के महाप्रवाह की तरह ध्यान की बजमय सुस्थिर पीठिका पर स्थित हो गये होंऐसा अनुभव होता है।
'पड़मं तच मंगल' में जो प्रथम शब्द प्रयुक्त है, उसका अर्थ निरंतर विस्तार पाता हुआ मंगल है, अर्थात् यह ऐसा मंगल है, जो उत्तरोत्तर कल्याणकारी होता जाता है। 'हवई' शब्द के प्रयोग के | बिना भी अर्थ समझा जाता है किंतु इसके प्रयोग का विशेष कारण- नवकार का मंगल निरंतर विद्यमान रहता है, यह सूचित करना है।
णमोक्कार मंत्र - रूप माता का वात्सल्य अपने दोनों हाथ फैला कर सबको अपनी गोद में लेने को उद्यत है। इसी का दूसरा नाम उत्कृष्ट मंगल है। इसका अभिप्राय यह है कि उत्कृष्ट मंगल सतत समवस्थित रहता है तथा भविष्य में निरंतर विस्तार पाता जाता है ।
१. त्रैलोक्य दीपक, पृष्ठ ४०९, ४१०.
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