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णमो सिद्धार्ण पद: समीक्षात्मक परिशीलन योग में पद्मासन, खड्गासन, अर्द्धपद्मासन आदि अनेक आसनों का वर्णन किया गया हैं।
आचार्य हेमचंद्र ने जप और ध्यान में आसन-प्रयोग के संबंध में लिखा है कि अमक आसनों का प्रयोग किया जाए, अमुक का नहीं किया जाए- ऐसा कोई प्रतिबंध या नियम नहीं है। जिस आसन का प्रयोग करने से मन सुस्थिर होता है, उसी का जप या ध्यान-साधन के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
जिस आसन में बैठने से अंगों का खिंचाव हो, बैठे रहने में कठिनाई का अनुभव हो, वैसे आसन में नहीं बैठना चाहिए। जप करने काले व्यक्ति को अपना मुँह पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर रखना चाहिए। उसे काल का प्रमाण कर, 'मैं इतने काल तक जप करूंगा'- ऐसा निश्चित कर, मौन पूर्वक जप करना चाहिए।
५. विनय-शुद्धि
विनय का अर्थ- आराध्य के प्रति विनत भाव है। णमोक्कार मंत्र का जप करते समय साधक को अपने मन में पंच-परमेष्ठियों के प्रति अनवरत विनय-भाव रखना चाहिये । हिंसापूर्ण या अविनयपूर्ण परिवेश से सर्वथा दूर रहना चाहिए। जिस आसन पर स्थित होकर जप करना हो, उस आसन का सावधानी पूर्वक प्रतिलेखन करना चाहिए। ईर्यापथ-शुद्धि के साथ-साथ भूमि का अवलोकन करना चाहिए। मन में जप के प्रति अनुराग एवं आंतरिक उत्साह नहीं होगा, तब तक सच्चे मन से जप नहीं होगा।
६. मन-शुद्धि | जप में अभिरत साधक को विचारों के कालष्य का त्याग करना चाहिये। मन बड़ा चंचल है. जब भी व्यक्ति जप या ध्यान में बैठता है तो मन इधर-उधर भटकता है। जिनका जप किया जाता है, वे मन से सर्वथा दूर हो जाते हैं। केवल अक्षरों का उच्चारण होता है, विचारों में और ही कुछ अन्यभाव आने लगते हैं। इसलिये साधक मन को एकाग्र रखे, विकारों से अस्पृष्ट रहे तथा मन को पवित्र रखने का प्रयास करे। इस प्रकार मन के परिष्कार का सतत प्रयत्न करने से मन क्रमश: स्थिर होता जाता है।
SHARIRISTORY
७. वचन-शुद्धि
वचन का अर्थ बोलना या उच्चारण करना है। मंत्र का उच्चारण सर्वथा शुद्ध होना चाहिए। उच्चारण का अत्यधिक महत्त्व है । शास्त्रों में उच्चारण, स्वर और ध्वनि आदि की शुद्धि पर बहुत जोर दिया गया है। मंत्र के मूल स्वरूप में अक्षर, मात्रा आदि की दृष्टि से तिल-मात्र भी अशुद्धता न हो, इसका ध्यान रखा जाए। अशुद्ध मंत्र फलदायी नहीं होता। १. योग-शास्त्र, चतुर्थ-प्रकाश, श्लोक-१३४, पृष्ठ : १४९.
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