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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन -
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सकती है। अंतश्चेतना इससे परे-विमुख रहती है। उस पर किन्हीं भी प्रकार की विकृतियों का असर नहीं होता और वह भांत भी नहीं होती, क्योंकि उसमें पूर्णत: दिव्यता बनी रहती है। वही मानव को सही अर्थ में मानव बनाए रखती है। आगे वह उसको देवत्व का साक्षात्कार करा सकती है।
__ ऋषि, महर्षि, साधु-संत, योगी आदि सभी अपने परम लक्ष्य-सिद्धत्व, ब्रह्मत्व या मक्तत्व को प्राप्त करने हेतु इसी अंतश्चेतना को विकसित करने में संलग्न रहते हैं। मंत्र इस अंतश्चेतना से अनुप्राणित होते हैं। इसलिये उनमें एक विस्मयकारी विशेषता उत्पन्न हो जाती है। मंत्र-शक्ति अपार है। उस शक्ति को बढ़ाने के लिये आसन, प्राणायाम, यम, नियम, ध्यान और धारणा आदि का अभ्यास आवश्यक है।
___ 'मंत्र-विज्ञान अने साधना-रहस्य' नामक पुस्तक में मंत्र-जप के अधिकार के संबंध में एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है :____ “एक समय किसी जिज्ञासु साधक ने श्री रामकृष्ण परमहंस से प्रश्न किया- महाराज ! मंत्र क्या है ? कोई व्यक्ति किसी ग्रंथ आदि में से मंत्र को ग्रहणकर उसका रटन या साधन करे तो क्या उससे उसको लाभ होगा ?"
रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया- नहीं, मंत्र तो तभी फलप्रद होता है, जब योग्य गुरु से योग्य अधिकारी ग्रहण कर उसकी साधना करे।
जप का जितना एकाग्रता के साथ संबंध है, उतना ही गंभीरता के साथ भी है । बीज को जैसे धरती में बोना पड़ता है, उसी तरह णमोक्कार मंत्र के प्रत्येक अक्षर को उच्च भावपूर्वक मन द्वारा प्राणों में पहुँचाना चाहिए। अक्षर में स्थित चैतन्य, प्राण का योग पाकर प्रगट होता है, जिससे जप करने वाले पुण्यशाली की भावना अधिक उज्ज्वल बनती है तथा स्वभावत: सर्वोच्च आत्मभाव संपन्न भगवंतों की भक्ति की तरफ अग्रसर होते हैं।'
सुप्रसिद्ध जैन लेखक शतावधानी पंडित श्री धीरजलाल टोकरशी शाह 'जिनोपासना' नामक ग्रंथ में नाम-स्मरण का महत्त्व बतलाते हुए लिखते हैं :
"उपास्य देव को याद करना, उनका नाम का रटना, जप करना, नाम स्मरण कहा जाता है । कई उसको भगवत्-स्मरण या प्रभु-स्मरण भी कहते है। नाम-स्मरण सहज साधन है, क्योंकि वह बहुत सहजता से हो सकता है। अरिहंत, वीतराग, परमात्मा- इन जिन सूचक शब्दों को मन द्वारा स्मरण किया जाए या मुख द्वारा बोला जाए तो क्या कष्ट होता है ? चाहे मनुष्य छोटा हो या बड़ा हो अथवा
२. मंत्र विज्ञान अने साधना रहस्य, भाग-४, पृष्ठ : ११६.
१ मंत्र-रहस्य, पृष्ठ : १००. ३. अखंडज्योत, पृष्ठ : ५४.
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