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सिद्धत्व-पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य
विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों की विधियों का विशेष रूप से विवेचन है। साधुओं को दोष लगने पर आचार्य प्रायश्चित्त देते हैं। अत: आचार्य के लिए इस सूत्र का अध्ययन आवश्यक माना गया है। | निशीथ-सूत्र को आचारांग-सूत्र की द्वितीय चूलिका के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसका एक नाम आचारकल्प भी है। इसमें ८१५ श्लोक-परिमित सामग्री है।
४. दशाश्रुतस्कंध-सूत्र
इसके रचनाकार आचार्य भद्रबाहू माने जाते हैं। यहाँ एक शंका उपस्थित होती है कि क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और दशाश्रुतस्कंध के रचनाकार भद्रबाहु एक ही थे या भिन्न थे ? । विद्वानों का ऐसा मानना है कि ये दोनों अलग-अलग थे। यहाँ कठिनाई यह है कि भद्रबाहु नाम के कई आचार्य हुए हैं। इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से इस सम्बन्ध में हैं कुछ कहा नहीं जा सकता कि इसके रचनाकार कौन से भद्रबाहु थे।
दशाश्रुतस्कन्ध का दूसरा नाम आचारदशा है। इसमें दस विभाग हैं। इस सूत्र के प्रारंभ में अब्रह्मचर्य विषयक कर्म, रात्रि-भोजन, राजपिंड-ग्रहण तथा एक मास के अंतर्गत एक गण का परित्याग कर दूसरे गण में चले जाने वाले साधु के लिये क्या-क्या प्रायश्चित्त हैं। इसका उल्लेख है।
इसमें आचार्यों की आठ संपदाओं तथा गणि-संपदाओं की विशेष रूप में चर्चा है। आचार, श्रुत, देह, वाणी, वाचना, मति, प्रयोगमति तथा संग्रह का आठ संपदाओं में समावेश है।
भगवान् महावीर के जीवन-वृत्त का, पंच-कल्याणक का भी इसमें उल्लेख आता है। इसकी भाषा में प्रौढ़ता और शैली में काव्यात्मकता दृष्टिगोचर होती है। इसमें क्रियावादी, अक्रियावादी इत्यादि अन्य संप्रदायों का भी वर्णन है। भगवान् ऋषभदेव, भगवान् अरिष्टनेमि तथा भगवान् पार्श्वनाथ के चरित्र भी संक्षेप में प्रतिपादित हैं। इसमें १८३० श्लोक-प्रमाण सामग्री है।
आवश्यक-सूत्र
जैन आगम-साहित्य में आवश्यक-सूत्र का अत्यंत महत्त्व है। एक साधु अपने जीवन में भलीभाँति संयम का पालन करता रहे, इस हेतु उसे जागरित रहना अत्यन्त आवश्यक है।
साधु-जीवन में जागरूकता हेतु सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान के रूप में छह आवश्यक निर्देशित किये गये हैं, जिन्हें नित्य करना आवश्यक है, इसलिये यह सूत्र आवश्यक सूत्र के नाम से अभिहित हुआ।
१. दशाश्रुतस्कंध, चौथी दशा, सूत्र-१-८, पृष्ठ : २०, २१.
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