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सिद्धत्व-पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य
के प्रथम पट्टधर आचार्य सम्राट् श्री आत्मारामजी, आचार्य श्री हस्तीमलजी, जैन श्वेतांबर तेरापंथ के आचार्य श्री तुलसीजी तथा वर्तमान में आचार्य श्री महाप्रजजी द्वारा कतिपय आगमों का हिंदी अनुवाद एवं विवेचन सहित प्रकाशन हुआ है।
इस मध्य बत्तीस आगमों का, जैन शास्त्राचार्य विद्वद्रत्न श्री घासीलाल जी द्वारा रचित संस्कृत टीका तथा हिंदी एवं गुजराती में अनुवाद सहित प्रकाशन हुआ, जो वास्तव में आगम-वाङ्मय के क्षेत्र में उनका महान् योगदान है।
श्रमण संघीय द्वितीय पट्टधर आचार्य श्री आनंदऋषि जी के शासनकाल में पंडित-रत्न युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी 'मधुकर' द्वारा बत्तीस आगमों के हिंदी अनुवाद तथा विवेचन सहित संपादन का महत्त्वपूर्ण कार्य हाथ में लिया गया, जो अधिकांशत: उनके जीवन-काल में पूर्ण हो गया। जो कुछ अवशिष्ट रहा, वह उनकी अंतेवासिनी, परम विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' द्वारा पूर्ण किया गया।
महावीर जैन विद्यालय, ग्वालियाक, मुंबई द्वारा मुनिवर्य श्री जंबविजयजी के संपादकत्व में |संस्कृत टीकाओं सहित अंग आगमों के प्रकाशन का कार्य चल रहा है।
स्थानकवासी परंपरा के अंतर्गत श्री नानक आम्नाय के आचार्य श्री सुदर्शनलालजी के निर्देशन में ग्यारह अंगों तथा उनकी संस्कृत टीकाओं के हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन की योजना है। उसके अंतर्गत विद्वद्वर्य डॉ. श्री छगनलालजी शास्त्री तथा मनि श्री प्रियदर्शनजी द्वारा संपादित, अनूदित सूत्रकृतांग-सूत्र का श्री श्वेतांबर स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, गुलाबपुरा (राजस्थान) द्वारा प्रकाशन हुआ है। श्री जैन साधुमार्गी संरक्षक संघ, सैलाना (मध्यप्रदेश) तथा ब्यावर (राजस्थान) द्वारा भी हिंदी अनुवाद सहित अनेक आगमों का प्रकाशन हुआ है।
दिगंबर-परंपरा का साहित्य ___ चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु के अनंतर कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ। चवदह पूर्व में से चार पूर्व उनके साथ ही लुप्त हो गए। उनके पश्चात् ग्यारह अंग और दस पूर्व के ही ज्ञाता रहे।
दिगंबर-परंपरा में यह माना जाता है कि आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् भी पाँच आचार्य ग्यारह अंगों के ज्ञाता हुए। पूर्वो का ज्ञान लगभग लुप्त हो गया। थोड़ा कुछ बाकी रहा। तत्पश्चात् चार आचार्य केवल आचारांग के ही ज्ञाता रहे। अंगों का ज्ञान भी लुप्त हो गया। इस प्रकार कालक्रम से विच्छिन्न होते-होते भगवान् महावीर के निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंगों और पूर्वो का शेष रहा ज्ञान भी लुप्त होने लगा।
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