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( १३ )
द्वितीय प्रमाण। श्रीसूगडाङ्ग के दूसरे श्रुतस्कन्ध की नियुक्ति में लिखा है कि आर्द्रकुमार ने जिनमूर्ति को देखकर प्रतिबोध पाया ॥
तृतीय प्रमाण। श्रीमहावीरजी स्वामी के सम्मुख अंबड़ परिव्राजक ने अर्हन्त की मूर्ति को नमस्कार करना स्वीकार किया है ॥
पाठ यह है__अंवडस्सणं परिवायगस्स नो कप्पइ अण्ण उथ्थिएवा अण्ण उथिय देवयाणि वा अण्ण उथ्थिय परिग्गाहियाइं अरिहंत चेइयाइं वा वंदित्तए वानमंसित्तए वा णण्णथ्थ अरिहंतेवा अरिहंतचेइआणिवा ।।
आशय इस पाठ का यह है कि मुझ को अन्य मत के देवों की मूर्ति और यदि अन्य धर्मावलम्बी लोगों ने अन्ति की मूर्ति को लेकर अपना देव मान लिया हो उनको बन्दना नमस्कार करना स्वीकार नहीं है परन्तु अर्हन्त और अर्हन्त की प्रतिमा को बन्दना नमस्कार करूंगा।
चतुर्थ प्रमाण । आनन्द श्रावक के पाठ मे प्रयक्ष भान होता है कि वह श्रीतीर्थकर महावीर स्वामीजी के सन्मुख गया और उसने यह नियम स्वीकार किया कि मुझ को अन्य मत की मूर्ति को और अपने देव की मूर्ति को जो अन्यने स्वीकार कर ली हो उनको
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