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२२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
(ख) पूर्वोक्त २५ में से स्थावर, पर्याप्त, एकेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास और पराघात, इन ५ प्रकृतियों को कम करके, त्रस, अपर्याप्त, द्वीन्द्रियजाति, सेवार्तसंहनन और औदारिक अंगोपांग, इन ५ को मिलाने से द्वीन्द्रिय अर्पाप्तसहित २५ प्रकृतियों का बन्धस्थान होता है।
(ग) इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जाति के स्थान पर त्रीन्द्रिय जाति को मिलाने से त्रीन्द्रिय अपर्याप्तसहित २५ प्रकृतियों का बन्धस्थान होता है ।
(घ) त्रीन्द्रिय जाति के स्थान में चतुरिन्द्रिय जाति को मिलाने से चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस प्रकृतियों का बन्धस्थान होता है।
(ङ) चतुरिन्द्रिय जाति के स्थान में पंचेन्द्रिय जाति के मिलाने से पंचेन्द्रिय अपर्याप्त सहित २५ का बन्धस्थान होता है; और
(च) इसमें तिर्यञ्चगति के स्थान में मनुष्यगति के मिलाने से मनुष्य अपर्याप्त सहित पच्चीस प्रकृतियों का बन्धस्थान होता है।
इस प्रकार २५ प्रकृतियों वाला द्वितीय बन्धस्थान ६ प्रकार का होता है। इस बन्धस्थान के बन्धकर्त्ता जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में तथा द्वीन्द्रिय आदि से सभी अपर्याप्त तिर्यञ्चों तथा अपर्याप्त मनुष्यों में जन्म ले सकते हैं।
(३) मनुष्यगति- सहित पच्चीस - प्रकृतिक बन्धस्थान में से त्रस, अपर्याप्त, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, सेवार्त संहनन और औदारिक, अंगोपांग को घटाकर उसके बदले स्थावर, पर्याप्त, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, पराघात और आतप तथा उद्योत में से किसी एक को मिलाने से एकेन्द्रिय पर्याप्त युक्त छब्बीस का स्थान होता है। इस बन्धस्थान का बन्धकर्ता एकेन्द्रिय पर्याप्तक में जन्म लेता है। यह तृतीय बन्धस्थान है।
(४) नामकर्म की नौ ध्रुवबन्धिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से एक, शुभ और अशुभ में से एक, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति और अयश: कीर्ति में से एक, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, प्रथम संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, सुस्वर, शुभविहायोगति, उच्छ्वास और पराघात, इस प्रकार देवगति सहित २८ प्रकृतियों का चतुर्थ बन्धस्थान होता है। इस स्थान का बन्धक मरकर देवों में जन्म लेता है।
नरकगति की अपेक्षा २८ का बन्धस्थान - नौ ध्रुवबन्धिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश: कीर्ति, नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, हुण्डक संस्थान, नरकानुपूर्वी, वैक्रिय - अंगोपांग, दुःस्वर, अशुभ
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