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वादी सिद्धान्ताचार्य पण्डितजीके सम्मुख आकर सारे विरोध प्रायः अनुरोधमें बदल जाते हैं। वे वस्तुतः अनेकान्त दर्शनकी सफल प्रयोगशाला हैं।
स्याद्वाद महाविद्यालयके प्राचार्य पदसे जहाँ पण्डितजीने अनेक ग्रन्थोंका प्रणयन किया है, वहाँ निर्गन्थवादी विद्वानोंको भी बनाया-सिखाया है। वर्तमान विद्वानोंकी नामावली यदि बनाई जावे, तो आधेसे अधिक विद्वान् पण्डितजीके शिष्य हो मिलेंगे। वे सचमुच जिनवाणी व्याख्याताओंके विश्वविद्यालय हैं । पण्डितजी द्वारा शास्त्र प्रवचन तथा स्वतन्त्र व्याख्यानोंको यदि टेप किया जाता, जो जैनधर्मकी एक साहित्यिक सम्पत्ति हमारे पास होती जो अनेक दशाब्दियों तक हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहती। पण्डितजी निश्चित ही जिनवाणीके एन्साइक्लोपीडिया हैं ।
जिनवाणीके विचार-कोष पण्डितजी शतवर्षी होकर हमारा मार्गदर्शन करते रहें, यही हमारी कामना है । इस शाब्दिक आदरभावके साथ जिनवाणीके मल्लिनाथ श्री पण्डितजीको मेरे अनेक हार्दिक प्रणाम ।
कर्मठ समाजसेवी
विष्णु सनावद्या, सुमनाकर, ऊन, म०प्र० वास्तवमें श्री शास्त्रीजीने अपने जीवनके ५० वर्ष जैन जगत्की सेवामें व्यतीत किये हैं। ऐसे कर्मठ समाजसेवीका सम्मान करना जैन-समाजका परम कर्तव्य है। श्री शास्त्रीजीकी दीर्घायुके लिए मैं भगवान् श्री महावीरजीसे प्रार्थना करता हूँ ।
शास्त्रीजी शतायु हों
मूलचन्द, किशनदास कापडिया, सूरत हम तो दो वर्ष कम १०० वर्ष के हो रहे हैं, हमारा शरीर अत्यन्त शिथिल है। इन्द्रियोंने एक प्रकारसे जवाब दे दिया है । इसलिये लिखना पढ़ना भी नहीं बनता। हम पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री को अपनी शुभकामनायें प्रेषित करते हैं। वे शतायुष्क एवं सुखी जीवनके भोक्ता हों। वे आजीवन इसी प्रकार धर्म व समाज की सेवा करते रहें। भगवान् महावीर आपका कल्याण करें।
सन्त कैलाशचन्द्रजी
प्रेमचन्द जैन, अहिंसा मन्दिर, दिल्ली पूज्य पण्डित जी का जन्म १९०३ में भगवान् पुष्पदन्तके ज्ञान कल्याणकके दिन नहटौर, उत्तरप्रदेश में हुआ था । आप स्व० पं० राजेन्द्रकुमार जी न्यायतीर्थके सहपाठी थे। उन्होंने उनके साथ में आर्यसमाज से अनेक शास्त्रार्थों में सहयोग किया । आपका नाम बड़ी श्रद्धा और कृतज्ञतासे लिया जाता है । आपने अनेक प्राचीन शास्त्रों को आधुनिक भाषामें संपादित किया और जैनधर्म पुस्तक तो आपकी सर्वोत्तम कृति है जिसके लिये आपको पुरस्कार भी मिला। जैन सिद्धान्तके अनेक उच्चकोटिके ग्रन्थ आपके द्वारा सम्पादित ( दि० जैन शास्त्रार्थ संघ मथुरा, वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली व अन्य जगहों से ) होकर प्रकाशित हुए है।
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