Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ के प्रिय कृष्ण को ही विशेष रूप से निरूपित किया है। जयदेव आदि ने तो राधा-कृष्ण को नायक-नायिका की तरह प्रस्तुत किया है। "सरनामसिंह" ने लिखा है कि "गीतगोविन्द में राधा कृष्ण की संभोग क्रीड़ा का उल्लेख है।१७२ निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि श्री कृष्ण राधा की केलिक्रीड़ा के चित्रों को संस्कृत साहित्य में मुख्य रूप से वर्णित किया गया है। इन वर्णनों में श्री कृष्ण का ऐतिहासिक स्वरूप धीरे-धीरे विलुप्त होकर, उनके शृंगारिक रूप की प्रधानता बढ़ने लगी है। आचार्य दिनकर ने इन कवियों पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि "कृष्ण का सम्बन्ध फसल और गाय से था। प्राचीन ग्रन्थों में उनके साथ जो प्रेम कथाएँ नहीं मिलती, उससे यह प्रमाणित होता है कि वे . कोरे प्रेमी और हल्के जीव नहीं, बल्कि देश के बहुत बड़े नेता थे। अवश्य ही गोपाल लीला रास एवं चीरहरण की कथाएँ तथा उनका रसिक रूप बाद में भ्रान्त कवियों और आचारच्युत भक्तों की कल्पना है, जिन्हें, उन लोगों ने कृष्ण चरित्र में जबरदस्ती ढूंस दिया है। शकों के ह्रास काल में जिस प्रकार महादेव का रूपान्तरण लिंग में हुआ, इसी प्रकार गुप्तों के अवनति काल में वासुदेव का रूपान्तरण व्यभिचारी गोपाल में हुआ।१७३ __ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी वैष्णवभक्त गीतगोविन्दकार जयदेव को कृष्ण भक्त परम्परा में नहीं रखा है। उन्होंने भी इस ग्रन्थ को घोर शृंगारी काव्य ग्रन्थ घोषित किया है। ___ परन्तु कई विद्वान इसे शृंगारिक रचना न मानकर भक्तिभावना युक्त स्वरूप में स्वीकार करते हैं। उनके मतानुसार गोपी प्रेम में जो काम की गन्ध आती है, वह भ्रम है। सत्य तो इसके भीतर आध्यात्मिक भावना है। गोपी आत्मा का प्रतीक है, जो अनासक्त-अलौकिक एवं अशरीरी प्रेम करती है। इस तत्त्व को वही समझता है जो आत्म-समर्पण कर दे। राधा-कृष्ण विषयक शृंगार, विलास और काम वर्णन चिन्मुख है, वह जड़ोन्मुख नहीं है। अतः वह निश्चय ही काम अथवा लौकिक श्रेणी में नहीं आता। वह तो विशुद्ध प्रेम और भक्ति भाव है। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने कहा है कि जिस लीला के भली भाँति समझकर श्रद्धापूर्वक पढ़ने-सुनने से ही, अनेक काम विकार नष्ट होकर पराभक्ति प्राप्त होती है, उस लीला के करने वाले भगवान् और उनकी प्रेयसी, नायक-नायिका-गोपिकाओं में कामविकार देखना या कलुषित मानवी व्यभिचार की कल्पना करना कामविमोहित विषयासक्त मनुष्यों के बुद्धि-दोष का परिणाम है। ब्रजलीला परम पवित्र है। इस बात को प्रेमीजन भली-भाँति जानते हैं और उसी से नारद सदृश देवर्षि और शिव सदृश महादेव उसमें सम्मिलित होने की इच्छा से गोपी भाव में दीक्षित होते हैं। उपर्युक्त समीक्षा से स्पष्ट होता है कि संस्कृत कवियों ने अपनी कृतियों में शृंगार रस का आधार बनाकर पुरुषोत्तम कृष्ण की माधुर्यभाव की भक्ति का वर्णन किया है। श्री कृष्ण का यही माधुर्यभाव आगे चलकर विद्यापति के पदावली में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आगे चलकर इसी परम्परा को हिन्दी साहित्य में भी अपनाया गया है।