Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ प्रासादाः संगतास्तस्यां हेमप्राकारगोपुराः। . . सर्वत्र सुखदा रेजुर्विचित्रमणिकुट्टिमाः॥२ सूरसागर में भी यत्र-तत्र अद्भुत रस के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। श्री कृष्ण के माटी-भक्षण का प्रसंग देखिये जिसमें उनके मुख में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखकर नंदरानी यशोदा स्तब्ध हो जाती है नंदहि कहति यसोदा रानी। माटी मैं मिस मुख दिखायौ, तिहूँ लोक रजधानी। स्वर्ग पाताल धरनि वन पर्वत, बदन मांझ रहे आनी। . नदी सुमेरु देखि चकित भई, याकी अकथ कहानी। चितै रहे तब नंद जुवति-मुख, मन-मन करत बिनानी।३ उपर्युक्त प्रकार से दोनों ग्रन्थों में अद्भुत रस का सुन्दर चित्रण है। दोनों कृतियों के कथनक श्री कृष्ण महापुरुष एव परब्रह्म माने गये हैं अतः उसके चरित्र वर्णन में तथा उनके क्रिया-कलापों में अद्भुतता का होना स्वाभाविक है। शांत-रस : यह हमने पहले ही कह दिया है कि हरिवंशपुराण का अंगी रस "शांत" है। कृति के समस्त पात्रों ने अन्तोगत्वा दीक्षा धारण कर ली है। अनेक मुनियों के उपदेशों में शान्तरस की अभिव्यक्ति हुई है। हरिवंशपुराण के अंतिम तीन सर्ग इसी रस के भावों से भरे पड़े हैं। बलदेव जी की तपस्या, नेमिनाथ का उपदेश, पाण्डवों की दीक्षा, समुद्रविजय के नौ भाईयों, देवकी के छह पुत्रों एवं प्रद्युम्न कुमार इत्यादि का मोक्षगमन तथा नेमिनाथ जिनेन्द्र को निर्वाण की प्राप्ति इत्यादि प्रसंगों में शान्तरस की निष्पत्ति है। उदाहरणार्थ एक प्रसंग देखियेएक बार श्री कृष्ण के अनुज गजसुकुमार जिनेन्द्र नेमिनाथ से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र तथा सम्यक् दर्शन का उपदेश सुनते हैं तो उनके मन में वैराग्य की भावना आ जाती है। वे अविलम्ब अपने पिता-पुत्र आदि समस्त बन्धुओं को छोड़ विनय के साथ जिनेन्द्र से दीक्षा ग्रहण करते हैं एवं तप को उद्यत होते हैं आर्हन्त्यविभवोपेतं गणैादशभिर्वृतम्। जिनं नत्वोपविष्टोऽसौ कुमारश्चक्रपाणिना॥ जगाद भगवांस्तत्र नृसुरासुरसंसदि। संसारतरणोपायं धर्म रत्नत्रयोज्ज्वलम्॥४