Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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________________ सशक्त बनाने में विशेष सिद्ध हुए हैं। किसी कवि को अधरोत्तरता सिद्ध नहीं की जा सकती क्योंकि दोनों की काव्य भाषा, काव्य प्रणाली, काव्य परिस्थितियाँ तथा मनोवृत्ति पृथक्-पृथक् रही है, जिससे अलंकार-योजना में कहीं प्रौढ़ता तो कहीं सरलता का आश्रय लिया जा सकता है। वर्णन-कौशल :___ "लोकोत्तरवर्णनानिपुणकविकर्म.......।" काव्य के लिए वर्णन आवश्यक है। वर्णनों में कवि की निपुणता का ज्ञान होता है जो लोकशास्त्र एवं काव्यादि से प्राप्त होती है। काव्य में विशेषतः वर्णनात्मक महाकाव्य में वर्णनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ हम हरिवंशपुराण तथा सूरसागर में वर्णनों की स्वाभाविकता रसमयता एवं मनोहारिता पर विचार करेंगे। हरिवंशपुराण को आदि से लेकर अंत तक देखने पर वर्णनों का प्राचुर्य स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो जाता है। जिनसेनाचार्य के वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उनके हृदय में से वर्णनों का निर्झर बह रहा है। हरिवंशपुराण एक विशालकाय काव्य है तथा सूरसागर एक गीतिकाव्य; अतः दोनों ग्रन्थों के वर्णन कौशल में पर्याप्त अन्तर रहा है। दोनों ही कवियों ने अपनी-अपनी कृतियों में विविध प्रकार के मनोहारी वर्णन किये हैं परन्तु उन सबका पृथक्-पृथक् वर्णन करना स्थानाभाव के कारण सम्भव नहीं है। हरिवंशपुराण के कुछ विशिष्ट वर्णन :- ' हरिवंशपुराण के विविध वर्णनों में कुछ तो बहुत ही चित्ताकर्षक है। यहाँ हम कतिपय वर्णनों से आचार्य जिनसेन के वर्णन कौशल का परिचय प्राप्त करेंगे। वर्णनों की कसौटी के लिए हम निम्नांकित शीर्षकों में विभक्त वर्णनों को लेंगे(क) नगर-वर्णन (ख) ऋतु-वर्णन (ग) सौन्दर्य-वर्णन (घ) युद्ध-वर्णन हरिवंशपुराण में नगर-नगरियों के अनेक सुन्दर चित्र उपलब्ध होते हैं जिसका उल्लेख पूर्व में ही कर दिया है। यहाँ केवल "द्वारिका" नगरी का शोभा-वर्णन उदाहरणार्थ प्रस्तुत है वापीपुष्करिणीदीर्घदीर्घिकासरसीहृदैः। पद्मोत्पलादिसंछन्नरक्षया स्वादुवारिभिः॥ भास्वत्कल्पलतारूढकल्पवृक्षोपशोभितैः। नागवल्लीलवंगादिपूगादीनां च सद्वनैः॥ प्रासादाः संगतास्तस्यां हेमप्राकारगोपुराः। सर्वत्र सुखदा रेजुर्विचित्रमणिकुट्टिमाः॥(४१/२१-२३) अर्थात् वह नगरी बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी वज्रमय कोट के घेरा से -