Book Title: Jinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Author(s): Udayram Vaishnav
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________ प्रतीप का अर्थ है–विपरीत या प्रतिकूल। इस अलंकार में उपमेय से उपमान की हीनता दिखाई जाती है। दोनों काव्य-ग्रन्थों का एक-एक उदाहरण देखियेहरिवंशपुराण : पाणिपादमुखाम्भोजजंघोरुजघनश्रिया। रोमराजिभुजानाभिकुचोदरतनुत्विषा॥ भ्रूकर्णाक्षिशिरःकण्ठघोणाधरपुटाभया। अभिभूयोपमाः सर्वाः स्थितां जगति तां पराम्॥(४२/३७-३८) सूरसागर : देखिरी हरि के चंचल तारे। कमल मीन कौं कह एती छबि खंजन दून जात अनुहारे॥ वह लाखि निमिष नवत मुरलीपर कर मुख नैन भए इक चारे॥ (पद सं० 2415) प्रतीप अलंकार की प्रस्तुति में भी सूर जिनसेनाचार्य से ज्यादा स्वाभाविक लग रहे हैं। जिनसेनाचार्य के उपर्युक्त श्लोकं में रुक्मिणी का अद्भुत रूप-सौन्दर्य वर्णित किया है जिसमें संसार की समस्त उपमाओं को तिरस्कृत बताया गया है, जबकि सूर के इस पद में श्री कृष्ण के नैन-कमल, मीन-नयन से ज्यादा सुन्दर बताये गये हैं। उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त भी दोनों ग्रन्थों में तद्गुण भ्राँतिमान, स्वभावोक्ति, अप्रस्तुत प्रशंसा, मानवीयकरण, दृष्टांत, विरोधाभास तथा व्याजोक्ति इत्यादि अलंकार प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। अलंकारविधान का उपर्युक्त विवेचन तो मात्र इन कृतियों में निरूपित कतिपय अलंकारों के दृष्टान्तों तक ही सीमित है। दोनों कवियों की अलंकार-योजना विशाल एवं समृद्ध रही है। कहीं-कहीं पर इनका प्रयोग चमत्कार प्रदर्शन लिए परिलक्षित होता है परन्तु अधिकांशतः इनके प्रयोग सहज भावों को उत्कर्ष करने वाले हैं। महाकवि सूर एवं जिनसेनाचार्य दोनों अलंकारों के प्रयोग में जागरूक रहे हैं। तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय तो दोनों ही ग्रन्थों का अलंकार सौन्दर्य दर्शनीय है किन्तु ग्रन्थों की पृथक् भाषा तथा काव्य पद्धति में कुछ भेद होने के कारण अलंकार-योजना में भी पर्याप्त अन्तर है। हरिवंशपुराण ने अपने ग्रन्थ को संस्कृत साहित्य का एक प्रौढ़ एवं आकर्षक ग्रन्थ बनाने के लिए लालायित होकर जहाँ अलंकारों के विस्तृत उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वहाँ सूरसागर के लोक प्रसिद्ध कवि सूर ने ब्रज भाषा के इस ग्रन्थ में अलंकारों का अत्यधिक स्वाभाविक प्रयोग कर विशेषख्याति प्राप्त की है। सूर के अलंकार जिनसेनाचार्य की अपेक्षा भावों की प्रेषणीयता को